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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
लेकर फिर यह जीव संसार के भोगों में फँस जाता है और गर्भवाले दुःखों को भूल जाता है, इसी कारण फिर बार-बार जन्मता और मरता है । 'शिव-गीता' में मरण के दुःखों को भी दिखाया है
हा कान्ते हा धनं पुत्राः क्रन्दमानः सुदारुणम् । मण्डूक इव सर्पेण मृत्युना गीर्यते नरः ॥ १ ॥ अर्थात् जब जीव प्राणों को त्यागने लगता है, तब पुकारता है है भायें ! हे धन ! हे पुत्रो ! मुझको इस मृत्यु से छुड़ाओ, ऐसे भयानक शब्दों को करता है जैसे सर्प के मुख में पड़ा हुआ मेढक पुकारता है ।। १ ।।
अयः पाशेन कालस्य स्नेहपाशेन बन्धुभिः । आत्मानं कृष्यमाणस्य न खल्वस्ति परायणम् ॥ २ ॥
अर्थात् मरण-काल में यह जीव इधर तो काल के पाशों करके बँधा होता है, उधर सम्बन्धियों के स्नेह की रस्सियों करके खैचा हुआ होता है, पर कोई भी मृत्यु से इसकी रक्षा नहीं कर सकता है || २ ||
या माता सा पुनर्भार्या या भार्या जननी हि सा । यः पिता स पुनः पुत्रो यः पुत्रः स पुनः पिता ॥ १ ॥
अर्थात् पूर्व जन्म में जो माता होती है, वही पुत्र में स्नेह के कारण उत्तर जन्म में उसकी स्त्री बनती है । जो पूर्व जन्म में पिता होता है, वही उत्तर जन्म में पुत्र होता है । जो पूर्व जन्म में पुत्र होता है, वही उत्तर जन्म में पिता होता है ॥ १ ॥