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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० उत्तर - यह मेरे को कर्त्तय है, और यह मेरे को कर्त्तव्य नहीं है, इसी का नाम कृत और अकृत है अर्थात् इस तरह का जो आग्रह है अर्थात् अवश्य ही मेरे को यह करना उचित है, और अवश्य ही मेरे को यह करना उचित नहीं है, इन दोनों में अभिनिवेश अर्थात् हठ न करना और द्वन्द्व जो सुख-दुःख हैं, मैं इन दोनों से रहित हो जाऊँ इसमें आग्रह न करना, क्योंकि वे दोनों किसी भी देहधारी के कभी शान्त नहीं हुए हैं और न होवेंगे, इस वास्ते अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! इन कृताऽऽकृत आदिकों के त्याग से भी तू वैराग्य को प्राप्त हो । क्योंकि हे शिष्य ! तू अव्रती है, तेरा आग्रह याने हठे किसी में भी नहीं है । 11 मूलम् । कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात् । जीवितेच्छा बुभुक्षाच बुभुत्सोपशमं गता ॥ २ ॥ पदच्छेदः । कस्य, अपि, तात, धन्यस्य, लोकचेष्टावलोकनात्, जीवितेच्छा, बुभुक्षा, च, बुभुत्सा, उपशमम्, गता || अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । १३० तत = हे प्रिय - उत्पत्ति और विनाशरूप लोकों की चेष्टा लोकचेष्टावलोकनात् के देखने से - eer=fकसी धन्यस्य महात्मा का अपि=भी शब्दार्थ | जीवितेच्छा=जीने की इच्छा च=और बुभुक्षा=भोगने की इच्छा च और बुभुत्सा=ज्ञान की इच्छा उपशमम् = शान्ति को ताप्राप्त हुई है ||
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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