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१२८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० के साथ बना रहता है, तब तक मुक्ति लेश-मात्र इसको प्राप्त नहीं होती है।
इसी वार्ता को कहते हैं
जब तक जीव का शरीरादिकों से अहंकाराध्यास बना है, तब तक इसकी मुक्ति कदापि नहीं हो सकती है। जिस काल में अहंकाराध्यास इसका निवृत्त हो जाता है, उसी काल में विना ही परिश्रम अकर्ता, अभोक्ता होकर मुक्त हो जाता है ॥ ४ ॥ इति श्रीअष्टावक्रगीतायामष्टमं प्रकरणं समाप्तम् ।। ८ ।।