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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
लूट लावें । तदनुसार सब जुलाहे मिलकर रात्रि को क्षत्रियों के ग्राम को लूटने गये । जब क्षत्रिय लोग हथियार लेकर जुलाहों के मारने को दौड़े, तब जुलाहे सब भागे । उनमें से एक जुलाहे ने कहा कि भाइयो ! भागे तो जाते ही हो, भला मारो मारो तो कहते चलो। वे सब जुलाहे भागते जाते और मारो मारो भी कहते जाते थे ।
दात में यह है कि बहुत से बनावट के ज्ञानी ज्ञान के साधनों से भागे तो जाते हैं, पर औरों से ऐसा कहते जाते हैं कि वासना को त्यागो, ज्ञान को धारण करो, सब संसार मिथ्या है, ऐसे दम्भी ज्ञानी नहीं हो सकते हैं । जो समग्र वासनाओं से रहित हैं, वे ही ज्ञानी हैं। वासनावाला ही बन्ध को प्राप्त होता है ॥ १ ॥
मूलम् । तदामुक्तिर्यदा चित्तं न वाञ्छति न शोचति ।
न मुञ्चति न गृह्णाति न हृष्यति न कुप्यति ॥ २ ॥ पदच्छेदः ।
तदा, मुक्तिः, यदा, चित्तम्, न वाञ्छति, न शोचति, न मुञ्चति, न गृह्णाति, न, हृष्यति, न कुप्यति ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
यवाजव
चित्तम् = मन
न वाञ्छति न चाहता है
न शोचति न शोचता है
न मुञ्चतिन त्यागता है
न गृह्णाति=न ग्रहण करता है।
शब्दार्थ |
न हृष्यति=न प्रसन्न होता है + च और
न=न
कुप्यति = दुःखित होता है तदा-तब भी मुक्तिः मुक्ति है ||