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चौथा प्रकरण |
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प्रश्न- ज्ञानी की प्रवृत्ति यदृच्छा से अर्थात् दैवेच्छा से होती है या अपनी इच्छा से होती है ?
उत्तर - ज्ञानी की इच्छा से होती है, अपनी इच्छा से नहीं होती है ।
यद्यपि ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यंत इच्छा और अनिच्छा हटाई नहीं जा सकती है, तथापि ब्रह्मज्ञानी में इच्छा और अनिच्छा के हटाने की सामर्थ्य है, इसी वास्ते यदृच्छा करके भोगों में प्रवृत्त होकर या कर्मों में प्रवृत्त होकर विधि - निषेध का किकर नहीं हो सकता है । शुकदेवजी ने भी कहा हैभेदाभेद सपदि गलितौ पुण्यपापे विशीर्णे मायामोहा क्षयमुपगतौ नष्टसंदेहवृत्तेः । शब्दातीतं त्रिगुणरहितं प्राप्य तत्त्वाबोधं निस्त्रैगुण्ये पथि विचरतां को विधिः को निषेधः ॥ १ ॥ अर्थात् जिस विद्वान् के आत्मज्ञान के प्रभाव से भेद और अभेद ये दोनों वृत्ति-ज्ञान शीघ्र ही नष्ट हो गये हैं, उसी के पुण्य और पाप भी नष्ट हो जाते हैं और माया और माया का कार्य मोह; ये दोनों जिसके नष्ट हो गये हैं और जो शब्द आदि विषयों से और तीनों गुणों से रहित है, और जो आत्म-तत्त्व को प्राप्त हुआ है, और जो तीनों गुणों से रहित होकर निर्गुण ब्रह्म के मार्ग में विचरता रहता है, उसके लिये न कोई विधि है, और न कोई निषेध है ॥ १ ॥
प्रश्न - अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ १ ॥ अर्थात् किये हुए जो शुभ-अशुभ कर्म हैं, वे सब अवश्य ही सब जीवों को भोगने पड़ते हैं, तो फिर इन वाक्यों से क्या प्रयोजन है ?