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संस्कृतीका-भाषार्टीकासहिता। (५७) देहव्यतिरिक्तात्मबोधार्थ विवेकिनस्तु व्यर्थ एवेति सहटांतमाह यथेति तत्राऽत्रुधैरित्यऽकारप्रश्लेषे मुधैवक्रियते अपितु नेति काकुव्याख्यानम् अन्यत्सवै सुगमम्।।६९॥ . भा. टी. यदि आत्मा सदा निष्प्रपञ्च भासमान होयहै तब आत्मा और देहका भेद क्यों कर दिखायाहै । ऐसी शंका होनेपर कहैं हैं। जैसे कुम्भ मृत्तिकामय होयहै तिसीप्रकार देह चैतन्यस्वरूप आत्ममय होयहै इसीकारण ज्ञानी पुरुषको तौ आत्मा और देहका भेद मिथ्याहै ॥ ६९ ॥
सर्पत्वेनयथारज्जूरजतत्वेनशुक्तिका॥ विनिर्णीताविमूढेन देहत्वेनतथात्मता७०॥ सं. टी. इदानीमविवाकनः कल्पितदेहेतादात्म्यं सदृष्टांतमाह सर्पत्वेनेति ॥ ७०॥ . भा. टी. जिसप्रकार अज्ञानी पुरुष रज्जुको सर्प मानलेयहै
और सीपीको चांदी मानलेयहै इसीप्रकार आत्माको देह अज्ञानीकी कल्पनारूप निर्णय करै है ॥ ७० ॥
घटत्वेनयथापृथ्वी पटत्वेनैवतंतवः ।। विनिर्णीवा विमूढेन देहत्वेन तथात्मता॥७१॥ सं. टी. घटत्वेनेति ॥ ७१ ॥ : टी. जैसे अज्ञानी पुरुष मृत्तिकाको घट मानहै और