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( ६१ ) मात्र वापरवा जेटलां वस्त्र राखे छे, आहार पण पोताने अर्थे करता क रावता नथी ने सारा आहारनी अनुमोदना पण करता नथी. फक्त गृहस्थने घेर गृहस्थे पोताने अर्थे जे वस्तु करी छे, तेमांथी थोडी वस्तु ले छे अने स्वादनी पण वांछा करता नथी. श्रात्माने भावता विचरे छे, रात्री दिवस शास्त्राभ्यास करी रह्या छे. विकथा तो जेने करवी ज नथी. एवा महानुभाव महात्मा पुरुषने गुरु मानतो नथी अने आकरा मिथ्यात्वना जोरथी श्रावा पुरुषमां नहि दूषण छतां दूषण आरोपे छे, रात्री दिवस एवा गुणवंतनी निंदा करे छे. वली एवा पुरुषोए प्ररूपेलो जे धर्म, तेने अधर्म माने छे, जेमां हिंसाओ, अविनय, अज्ञानता, विषय तथा पुद्गलनुं पोषण छेतेने धर्म माने छे, ने जे दयामूल, विनयमूल, हिंसानो त्याग, असत्यनो त्याग, चोरीनो त्याग, स्त्रीसेवानो त्याग, पैसानो त्याग ए रूप व्यवहार धर्म तथा पोताना आत्मस्वरूपमां रही राग द्वेषनी परिणतीथी मुक्त थइ सर्व प्रकारे मोहनो नाश करवाने उद्यम रूप जे निश्चयधर्म, तेने अधर्म माने छे. ए मिथ्यात्वमोहनी कर्मना जोरथी बने छे. वली ए मोहनीना जोरथी धन, स्त्री, पुत्र, परिवार, घर, हाट, वस्त्र, पात्र ए पदार्थने जीव म्हारा माने छेने ते संबंधी जीव अहंकार ममकार विचित्र प्रकारना करे छे ने पाछां नवां कर्म उपार्जन करे छे. ए मिथ्यात्वमोहनी जेने जाय छे, तेने संसार तो दावानल सरखो लागे छे. जेम कोइ माणस वनमां गयो होय ने त्यां चारे पासे आग लागी होय तो तेमांथी नीकलवाना अनेक उद्यम करे, तेम आ जीव संसारमां रह्यो विचारे छे जे, 'आ धन कुटुंब सर्वे पदार्थ विनाशी छे, संयोगे मल्या छे ने वियोगे जशे. पूर्वकृत कर्म संयोगे जाय छे पूर्वकृत कर्म संयोगे प्राप्त थाय छे. एमां हुं जे राग धरुं हुं तेथी समय समय नवां कर्म बंधाय छे ने म्हारो आत्मा मलीन थतो जाय छे. अनादि कालनो संसारमां रोलाउं छं. ते ए जड पदार्थमां राग धरयो तेथी, पण आ भवमां तो भवितव्यताना योगे ए सर्वे पर वस्तु श्रोलखी ए सर्व पदार्थमां निरिच्छकता करीने ए वस्तुनो संयोग त्याग करवा योग्य छे. क्यारे ए
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