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________________ [७] सब से अंतिम विज्ञान - 'मैं, बावा और मंगलदास' ४४९ प्रश्नकर्ता : जगत् के लोगों को अर्थात् जिन्होंने ज्ञान नहीं लिया है उनमें किस प्रकार से है यह सारा? बावा का पद और मंगलदास का पद है ही? उनमें 'मैं' होता है ? उनकी समझ में तीनों पद होते हैं या उन्हें पता नहीं होता? दादाश्री : सभी कुछ होता है उनमें । उनकी समझ में नहीं होता। ज्ञान के बाद ही समझ में आता है। प्रश्नकर्ता : यह जो अहंकार ज्ञाता भाव से और कर्ता भाव से रहता है, तो बावा का भी ऐसा ही कोई कार्य होता है न दादा? अहंकार और बावा में क्या फर्क है? दादाश्री : अहंकार ही बावा है न! बावा में मुख्य चीज़ अहंकार ही है। जिसमें अहंकार कम होता है, वह भी बावा है। कम अहंकारी है। जिसमें अहंकार खत्म हो गया है, वह भी बावा है। प्रश्नकर्ता : तब फिर बावा का अस्तित्व ही खत्म हो गया न? दादाश्री : नहीं। प्रश्नकर्ता : या फिर बावा निर्सहंकारी पद में रहता है ? दादाश्री : हमारा चार्ज करने वाला अहंकार ही खत्म हो चुका है। हमारा 'मैं' 'अहंकार' खत्म हो चुका है, लेकिन यह बावा अभी तक अहंकारी है, तीन सौ छप्पन वाला। अतः डिस्चार्ज अहंकार रहता है, नहीं तो संडास भी न जा पाए। प्रश्नकर्ता : तो दादा इस हिसाब से, तीर्थंकरों में डिस्चार्ज अहंकार भी खत्म हो चुका होता है, तो उनका बावा भी खत्म हो चुका है ? दादाश्री : हाँ, फिर उन्हें कुछ भी नहीं करना पड़ता। प्रश्नकर्ता : खाना-पीना, संडास, अन्न कुछ भी नहीं? दादाश्री : उनका खाने-पीने का अलग तरह का होता है, खिलाने वाले अलग हैं, सबकुछ अलग होता है। कितने ही काम शरीर ही करता
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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