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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
अपनी जगह पर सेट हो गए हैं। एक-दूसरे की डिमार्केशन लाइन डल गई।
दादाश्री : बस! किसका खेत है यह? बाड़ वगैरह समझ लिया, देख लिया।
अंत में बावा! नहीं रहती है बावी कोई कहेगा, 'मैं ऐसा शुद्धात्मा हूँ, मुझे कुछ भी स्पर्श नहीं करता'। जो ऐसा कह रहा है, वह बावा है। हम तो शुद्धात्मा ही हैं, क्या बावा होकर शुद्धात्मा रहा जा सकता है ? और ज़्यादा उलझ जाएगा! एक व्यक्ति ने कहा, 'मैं तो शुद्धात्मा हो गया हूँ दादा के पास आकर। मुझे कुछ भी स्पर्श नहीं कर सकता'। इस बात का पता चलने पर उन्हें बुलाया। मैंने कहा, 'अब बावा मिट गया है क्या? वह जो शुद्धात्मा नहीं हुआ है, वह भी बावा है, लेकिन क्या तू बावा नहीं रहा?'
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : मैं भी बावा कहलाता हूँ न! चार डिग्री कम हैं। अगर एक की कमी है तो भी 'मैं' शुद्ध नहीं हो पाएगा। तब बावा उतर गया, और उस व्यक्ति ने कहा, 'फिर से ऐसा नहीं कहूँगा'। क्या बावा मिट गया है?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : अतः अहंकार नहीं चढ़ बैठना चाहिए। अहंकार को उतारने के लिए ही तो बावा को मिटाना है यानी कितना सुंदर रास्ता है ! इस पर पुस्तक लिखी जाए तो काम हो जाएगा न?
प्रश्नकर्ता : हो जाएगा, दादा। दादाश्री : संसार अर्थात् मैं, बावा और मंगलदास।
मैं भी बावा कहलाता हूँ न और आप भी बावी कहलाती हो। आपका बावीपना छूटा नहीं हैं और मेरा बावापना नहीं छूटा है। जब बावा 360 डिग्री वाला हो जाएगा तब 'मैं' छूट जाऊँगा, मुक्ति हो जाएगी!