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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
ज्ञानी भोगने वाले और हम जानने वाले! और हमारा घर कितनी दूर है ? हमारे घर के पास ज्ञानी हैं और उनके पास में अंबालाल भाई रहते हैं। मैं, बावा और मंगलदास!
खाने वाला, वेदने वाला और जानने वाला
खाने वाला अलग है, खिलाने वाला अलग है, चबाने वाला अलग है, वेदन करने वाला वेदक अलग है, और आप जानने वाले अलग...
प्रश्नकर्ता : ये सब कौन हैं? खाने वाला कौन है ? दादाश्री : क्या यह टेबल खाती है ? प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : जो खाता है, वही खाता है। वह खाने वाला इन सब से अलग है, वह भी आप नहीं हो। खाने वाला आपसे अलग है। फिर खिलाने वाला अलग है। हाथ खिलाते हैं। अन्य बाहर के खिलाने वालों से तो हमें कोई लेना-देना नहीं हैं, वास्तव में ये बाहर के खिलाने वाले देखे जा सकते हैं। हाथ इस तरह से खिलाते हैं। खाने वाला और फिर खिलाने वाला! हो गया?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : फिर, चबाने वाले अलग हैं। ये बत्तीस दाँत चबाते हैं। फिर वेदने वाला। अंदर बावा जी हैं। अरे... मीठा आया, तो हाइ क्लास है, हाँ... मज़ा आ गया! जब कड़वा आता है, तब वेदता है अर्थात् उल्टा वेदता है। वेदना होती है न!? जब ऐसा कड़वा आता है तो सहन नहीं होता और जब मीठा होता है तब वैसा। अतः उसे वेदकता कहते हैं। कड़वे-मीठे का वेदन करने वाला। जानने वाला यह जानता है कि यह वेदने वाला कैसे वेद रहा है। जानने वाला 'मैं खुद हूँ', वेदकता वाला ज्ञानी है।
प्रश्नकर्ता : ज्ञानी? अभी बावा कहा था न, वेदकता वाला बावा?