SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६] निरालंब ३८३ 'केवलज्ञान स्वरूप' अर्थात् 'एब्सल्यूट' ज्ञान स्वरूप है। केवलज्ञान आकाश जैसा है। आकाश जैसा स्वभाव है, अरूपी है! आत्मा आकाश जैसा सूक्ष्म है। आकाश को यदि अग्नि स्पर्श करे तो वह जलता नहीं है। अग्नि स्थूल है। बाकी सभी चीजें आत्मा की तुलना में स्थूल हैं ! केवलज्ञान स्वरूप कैसा दिखाई देता है ? पूरे देह में सिर्फ आकाश जितना ही भाग खुद का दिखाई देता है। सिर्फ आकाश ही दिखाई देता है, अन्य कुछ भी नहीं दिखाई देता। उसमें कोई मूर्त चीज़ नहीं होती। यों धीरे-धीरे अभ्यास करते जाना है। अनादिकाल के अन्-अभ्यास को 'ज्ञानीपुरुष' के कहने से अभ्यास होता जाता है। अभ्यास हो जाने पर शुद्ध हो जाएगा! गजसुकुमार ने जो आत्मा प्राप्त किया था, वह आत्मा हमारे पास है और तीर्थंकरों के पास भी वही आत्मा था। वह आत्मा ऐसा है कि इस काल में किसी को प्राप्त नहीं हो सकता। बात सही है। शुद्धात्मा से आगे बढ़ा, तो भी बहुत हो गया। शब्द से आगे बढ़ा कि 'यह तो शब्द का अवलंबन है' इतना समझने लगा तो वह वहाँ से निरालंब की तरफ जाएगा। फिर वह निरंतर निरालंब की तरफ जाएगा। शुद्धात्मा भी शब्द है न, अवलंबन शब्द का है जबकि मूल शुद्धात्मा ऐसा नहीं है। प्रश्नकर्ता : ये सभी महात्मा जो हैं, वे सभी उस कक्षा तक पहुँच सकेंगे न? दादाश्री : वह तो कभी न कभी पहुँचना ही पड़ेगा, और कुछ नहीं है। यह कक्षा कब प्राप्त होगी? जब तीर्थंकर को देखेंगे और दर्शन करेंगे तो वह कक्षा (स्थिति) हो ही जाएगी! सिर्फ दर्शन से ही वह कक्षा उत्पन्न हो जाएगी। आगे की कक्षा तो सिर्फ तीर्थंकरों के दर्शन करने से, उनकी स्थिरता को देखने से, उनके प्रेम को देखने से तो उत्पन्न हो जाएगी। वह शास्त्रों द्वारा किया जाए तो उत्पन्न नहीं हो सकती, वह तो देखने से ही हो जाता है। जिन्हें खुद का आधार प्राप्त हो गया है, वे सभी ज्ञानी हैं। फिर
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy