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का गुण है। आत्मा का गुण तो दर्शन है। श्रद्धा, अश्रद्धा में बदल सकती है जबकि आत्मा का दर्शन कभी भी नहीं बदलता।
प्रतीति अर्थात् दर्शन, जबकि लक्ष, वह जागृति है और जो प्रतीति हुई है, उसका अनुभव में आना, वह ज्ञान कहलाता है। आत्मा के अनुभव
और ज्ञान में क्या फर्क है? अनुभव एक-एक अंश करके बढ़ता जाता है और ज्ञान सर्वांश होता है।
दादाश्री जब ज्ञान देते हैं तब संपूर्ण दर्शन हो जाता है लेकिन ज्ञान एक-एक अंश करके होता जाता है। 'ज्ञान' देते हैं तब जागृति उत्पन्न होती है, और उस जागृति के आधार पर ही सब अनुभव होते हैं। अतः शुरुआत में दर्शनात्मा बनता है उसके बाद ज्ञानात्मा बनता है। ज्ञान वाले को खुद के बहुत दोष दिखाई देने शुरू हो जाते हैं और वह उनसे मुक्त होता जाता है।
दर्शन किसका कहा जाएगा? बुद्धि का या प्रज्ञा का? दर्शन तो, प्रज्ञा को भी दिखाए, ऐसी चीज़ है। दर्शन अर्थात् यह प्रतीति कि हम आत्मा ही हैं।
प्रतीति किसे बैठती है? अहंकार को।
प्रतीति प्रज्ञा करवाती है ? नहीं! दादाश्री आत्मा का जो 'ज्ञान' देते हैं वह और दादा भगवान की कृपा, ये करवाते हैं। ज्ञान मिलते ही भगवान की कृपा से ज्ञान फिट हो जाता है। रोंग बिलीफ खत्म हो जाती है और राइट बिलीफ बैठती है।
राइट बिलीफ, राइट ज्ञान और राइट चारित्र, इन तीनों का समावेश सत् में होता है।
दर्शन का अर्थ क्या है कि 'मैं भगवान हूँ' ऐसी श्रद्धा बैठ गई लेकिन निश्चय से भगवान हूँ, व्यवहार से तो वकील हूँ या डॉक्टर हूँ।
खुद को जाने, वह खुदा लेकिन वह श्रद्धा से हुआ है, ज्ञान से नहीं। खुदा तो दादा हैं!
अक्रम में ज्ञानविधि में पहले तो अनंत काल के पाप भस्मीभूत हो जाते हैं, उसके बाद आत्मा की प्रतीति बैठती है। फिर आत्मा का कुछकुछ अनुभव होता है, उसकी शुरुआत हो जाती है।
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