SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६] निरालंब ३६५ दादाश्री : दो प्रकार के संयोग होते ही हैं न! प्रश्नकर्ता : हाँ, तो वे दोनों प्रकार के अवलंबन अंदर खड़े होते हैं लेकिन यदि खुद वहाँ से हट जाए तो क्या वह निरालंब स्थिति की तरफ जा सकता है? दादाश्री : कैसे हट पाएगा लेकिन? प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान की जागृति से। बाहर संयोग हों लेकिन अंदर जागृतिपूर्वक हट जाए तो? दादाश्री : लेकिन हटेगा कैसे? वह ज्ञाता-दृष्टा रह पाए तभी कहा जाएगा कि वह हट गया। प्रश्नकर्ता : क्योंकि आज व्यवहार और संयोग आपके आसपास भी हैं और महात्माओं के आसपास भी व्यवहार व संयोग हैं लेकिन क्या इसमें बीच में कुछ ऐसा है जो कि आपको निरालंब स्थिति में रख सकता है। दादाश्री : ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं। प्रश्नकर्ता : वही पद। दादाश्री : वीतराग रहते हैं। प्रश्नकर्ता : तो ऐसा किस प्रकार कह सकते हैं कि वह ज्ञाता-दृष्टा पद में रहा? दादाश्री : वह उसे खुद को पता चल जाता है। वह मना ही करेगा कि 'मैं नहीं रहा हूँ। प्रश्नकर्ता : आपने ऐसा भी कहा था कि 'हमने वह स्वरूप देख लिया है इसलिए इस तरफ निरालंब स्थिति रह सकती है', तो क्या ज्ञाता-दृष्टापने में भी ऐसा ही है? दादाश्री : ज्ञाता-दृष्टापद का तो खुद को पता चल जाता है न,
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy