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________________ ३२८ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) दादाश्री : अवलंबन से जगत् खड़ा है। इस अवलंबन की मदद से जीते हैं सभी। प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा मानते हैं कि अवलंबन से ही मिलेगा। दादाश्री : हाँ, लेकिन वही है न सभी जगह, अवलंबन के बिना मिलेगा ही कैसे? वह आत्मा के स्वरूप को नहीं जानता। वह निरालंब, 'मैं स्वतंत्र हूँ', ऐसा नहीं जानता। किसी भी भगवान से मैं स्वतंत्र हूँ, 'मैं भगवान ही हूँ', ऐसा नहीं जानता। यदि ऐसा जाने कि 'मैं भगवान हूँ' तो कहा जाएगा कि वह निरालंब हो गया। उसे किसी का अवलंबन नहीं रहा। प्रश्नकर्ता : हाँ लेकिन अवलंबन से तो वह नहीं मिलेगा न? आत्मा प्राप्ति की बात कर रहा हूँ। दादाश्री : आत्मा प्राप्ति के लिए ऐसा कुछ नहीं है। जिन्हें यह आत्मा प्राप्त हुआ है, उन्हीं से हमें प्राप्त हो सकता है। यह सब तो ठीक है। ये सब तो अवलंबन ही हैं न! सभी अवलंबन हैं। निरालंब ही आत्मा का गुण है। उच्चत्तम गुण कौन सा है? निरालंबपना, कोई अवलंबन नहीं। वही उसका एब्सल्यूट स्वभाव है। __ आत्मा को किसी का अवलंबन नहीं है। आत्मा को किसी चीज़ का अवलंबन नहीं है। निरालंब वस्तु है और यह पुद्गल अवलंबन है। जब तक ऐसा है कि 'मैं यह हूँ' तब तक यह अवलंबन है। जब तक आत्मसम्मुख नहीं हो जाता, तब तक सुख और दुःख भी अवलंबन हैं, और परवशता है। अवलंबन ही परवशता है न! आत्मा के सिवा जो-जो अवलंबन लिए हैं, जब तक वे निकल नहीं जाते तब तक कुछ नहीं हो पाएगा। __ 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वह शब्दावलंबन प्रश्नकर्ता : आत्मदर्शन किस प्रकार से होता है ? आत्मा खुद अपने आप को किस प्रकार से देख सकता है? दादाश्री : आत्मा खुद अपने आप को? वह खुद को तो देखता
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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