________________
३२६
आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
इसमें तो अगर सिर्फ ज्ञानीपुरुष का अवलंबन ले तो काम हो जाएगा क्योंकि वह अंतिम साधन है! आत्मा निरालंब है!
निरालंबी दशा प्रश्नकर्ता : लेकिन आप जिस समझ की बात कर रहे हैं, वह निरावलंबी समझ है न?
दादाश्री : उसकी तो बात ही अलग है! निरावलंबी है। उसके बारे में तो दुनिया ने अभी तक सुना ही नहीं है, बाज़ार में भी नहीं सुना है। उसका अनुभव कुछ ही लोगों ने किया है। वे बताए बिना चले गए। वह जो बात है, मैंने बाज़ार में खोल दी।
प्रश्नकर्ता : अब यह जो निरावलंबन की समझ है. निरालंबी समझ है, तो वहाँ वर्तन कैसा होता है?
दादाश्री : वर्तन लिमिटेड हो जाता है और फिर खत्म हो जाता
है
___ प्रश्नकर्ता : नहीं दादा। जहाँ निरालंबन की समझ है, वहाँ पर वर्तन-चारित्र सबकुछ एक ही हो जाता है न?
दादाश्री : वर्तन बहुत ही कम रहता है, थोड़ा बहुत। जैसे लटू घूमते-घूमते थक जाता है न, फिर धीरे-धीरे घूमता है न, उस तरह का!
प्रश्नकर्ता : वह तो आपने बाहर की बात की।
दादाश्री : तो और क्या? अंदर तो कुछ रहता ही नहीं है। क्लियर रहता है। साफ-सुथरा रहता है।
प्रश्नकर्ता : हम आपकी दशा देखते हैं लेकिन हमें कुछ पता नहीं चलता, लेकिन आपकी दशा कैसी होगी? परम ज्ञान में जो दशा रहती है, वह दशा कैसी होती है?
दादाश्री : हाँ, उस दशा को हम ही जानते हैं। मैं समाधि से बाहर