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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
फिर नहीं बुद्धि का आलंबन आत्मानुभवी पुरुषों ने जो आत्मा नहीं देखा है, वह आत्मा हमने देखा है। आत्मानुभवी को तो जितना अनुभव हुआ, पच्चीस प्रतिशत अनुभव हुआ तो दूसरा पचहत्तर प्रतिशत का क्या हुआ? उस पचहत्तर प्रतिशत का उसे अवलंबन है। पच्चीस प्रतिशत अनुभव हो जाए तो उतना निरालंब हो जाता है। हमने निरालंब आत्मा देखा है और हमें सब में निरालंब आत्मा दिखाई देता है लेकिन आपको यह कैसे समझ में आएगा? वह तो निरंतर मेरे साथ के साथ दर्शन रहा करेगा न, तो काम हो जाएगा। बाकी यह काम इस तरह से नहीं हो सकेगा। जैसेजैसे आत्मा का कुछ अनुभव होता जाएगा न, वैसे-वैसे काम होता जाएगा। हम आप सब को आत्मा का ज्ञान देते हैं, सभी को आत्मानुभव है। हर एक को अपने-अपने परिमाण में। आत्मानुभव बढ़ने के बाद पच्चीस, तीस, चालीस प्रतिशत होने के बाद उसमें नाम मात्र को भी बुद्धि नहीं रहती।
पच्चीस प्रतिशत (आत्मानुभव) होने से ही बुद्धि चली जाती है। अनुभव जब पच्चीस प्रतिशत तक पहुँचता है तब, क्योंकि उसके बाद उन्हें वह काम ही नहीं आती। बल्कि उनकी प्रगति में दखल करती रहती है।
जगत् जीवित है आलंबन से प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, इंसान को अनादि से आदत है कि आलंबन से ही जीना है।
दादाश्री : आलंबन के बिना तो मर जाएगा इंसान। आलंबन से जीना, वही संसार कहलाता है और निरालंब से जीए तो वह मुक्ति है। भला इन आलंबनों में आनंद कहाँ है? वे तो फिर छूट जाते हैं न, निरालंब का मोक्ष होता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन इंसान को अवलंबन के बिना चलता ही नहीं है न?