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कहा हुआ ज्ञान नहीं चलता। जो जाना हुआ-अनुभव किया हुआ ज्ञान हो वही सच्चा ज्ञान कहलाता है, और वही मोक्ष में ले जाता है, अन्य नहीं। _ 'मैं चंदूभाई हूँ, मुझे नहीं पहचाना?' इस तरह अज्ञान को आधार दिया। उसी से खड़ा है यह जगत् । ज्ञान मिलने के बाद 'मैं' 'मैं' में आ गया इसलिए अज्ञान हो गया निराधार ।
भ्रांति और अज्ञान में क्या फर्क है? अज्ञान में से जिसका जन्म होता है, वह भ्रांति है। अज्ञान में से काफी कुछ होता है, उसमें एक अंकुर भ्रांति का भी फूटता है।
जिसे अक्रम ज्ञान मिला हो, उसे भ्रांति नहीं रहती। कोई अच्छा सेठ हो लेकिन यदि उसने इतनी सी ब्रांडी पी ली तो? भ्रांति हो जाती है न? अतः ज्ञान मिलने पर अज्ञान का कुछ भाग कम हो गया। 'मैं शुद्धात्मा ही हूँ' वह प्रतीति बैठी। सम्यक् दर्शन हो गया। अब सम्यक् ज्ञान होने लगा है।
माने हुए ज्ञान और जाने हुए ज्ञान में क्या फर्क है? जाना हुआ ज्ञान अर्थात् अनुभव किया हुआ। शक्कर मुँह में रखी अर्थात् जान लिया और अगर सुनकर मान लिया कि शक्कर मीठी है, मीठी है तो वह नहीं चलेगा।
समझ तो आकर जा भी सकती है लेकिन ज्ञान नहीं जाता।
मूलतः अज्ञान है और उसके बाद मोह। आत्मज्ञान होने के बाद मोह के अंश कम हो जाते हैं। आत्मज्ञान के अंश नहीं होते हैं।
ज्ञान का अंत है लेकिन अज्ञान का नहीं। अहंकार किसे आया? अज्ञान को।
पूरे जगत् के तमाम सब्जेक्ट्स को जान ले, तब भी वह बुद्धि कहलाएगी और सिर्फ इतना ही जान ले, 'मैं कौन हूँ' तो वह ज्ञान कहलाएगा।
क्रिया वाला सारा ज्ञान, अज्ञान कहलाता है और क्रिया भी अज्ञान कहलाती है। अहंकार होगा तभी क्रिया हो सकती है, नहीं तो नहीं हो सकती, और चेतन ज्ञान स्वयं क्रियाकारी होता है।
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