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________________ [५.२] चारित्र ३११ का नाटक है अतः नाटक में नाटकीय रहना चाहिए। सबकुछ बस यों ही, शोर-शराबा, सारी धाँधली करनी है। अंदर कोई परिणाम नहीं बदलने चाहिए। वर्ना रो-रोकर भुगतोगे जबकि आपको हँसकर भुगतना है। इतना ही कहते हैं न! भुगतने में अंतर है न! निज स्वभाव का अखंड ज्ञान 'केवळ निज स्वभाव, अखंड वर्ते ज्ञान ।' (सिर्फ निज स्वभाव का ही अखंड ज्ञान बरतता है।) निज स्वभाव का अर्थात् 'निरंतर ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव का। उसके अलावा अन्य कुछ भी नहीं रहता, उसे केवलज्ञान कहते हैं', ऐसा कृपालुदेव ने कहा है। अभी वह पद हम से ज़रा दूर है। हमें ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में आना है। वह चारित्र कहलाता है। अभी तो हमें दादा ने दर्शन दिया था, अखंड दर्शन। उसमें जितना अनुभव में आने लगा उतना ज्ञान हुआ और फिर उसमें से चारित्र उत्पन्न होगा। अब आंशिक चारित्र बरतेगा। जितना अखंड ज्ञान-दर्शन इकट्ठा होगा उतना ही चारित्र उत्पन्न हो जाएगा। अब उसे वह अनुभव किसमें से होता है? उस चारित्र मोह को देखने से अर्थात् वह यह सब देखता है कि चंदूभाई क्या कर रहे हैं। दादा का चारित्र प्रश्नकर्ता : अब क्या इस चारित्र शब्द में ज्ञान और दर्शन आ जाते हैं? दादाश्री : ज्ञान-दर्शन दोनों ही आ जाते हैं। ऐसा है न कि यह जो सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र कहा गया है, तो इस क्रमिक मार्ग में सम्यक् ज्ञान है, सम्यक् दर्शन है और सम्यक चारित्र है। यह अक्रम मार्ग है अतः केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलचारित्र है। अतः आपको केवलदर्शन प्राप्त हुआ है यहाँ पर! केवलज्ञान और केवलचारित्र प्राप्त नहीं हुआ है।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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