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________________ ३०६ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) वही चारित्र है। यह चारित्र नहीं, देह का चारित्र नहीं है। आत्मा का चारित्र अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा और परमानंद में रहना, वह आत्मा का चारित्र है। जानना, देखना और स्थिर होना, वह चारित्र कहलाता है। जागृति से दर्शन बढ़ता है और स्थिरता से चारित्र प्रकट होता है। ज्ञान, दर्शन तो वह है जो मैंने दिया है और 'देखना-जानना' व चारित्र में स्थिर होना। हमने कहा है कि यह सब जो पूरे दिन होता रहता है, उसे देखो, जानो और स्थिर रहो। देखते ही रहो, क्या हो रहा है उसे देखते ही रहो। नुकसान हो रहा हो तो भी देखते रहो, और फायदा हो रहा हो तो भी देखते रहो। बेटा मर जाए तो भी देखते रहो, बेटे का जन्म हो तो भी देखते रहो। उसमें कोई हर्ज नहीं है। सिर्फ देखते रहना है। राग, द्वेष नहीं। क्रिया वही की वही रहेगी। भगवान ने क्या कहा है, बाहर की क्रिया, देह की क्रिया वैसी ही रहती है, अज्ञानी जैसी ही रहती है लेकिन यदि राग-द्वेष नहीं हैं तो ऐसा कहा जाएगा कि उसने वीतराग धर्म प्राप्त कर लिया। वह चारित्र कहलाएगा। राग-द्वेष रहित होना, उसी को चारित्र कहते हैं। हमें किसी भी जगह पर राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते। चाहे व्यापार में कैसा भी नुकसान हो जाए, आपकी वजह से हो जाए, तब भी नहीं। प्रश्नकर्ता : वह तो अपने कर्म का उदय है न? दादाश्री : 'व्यवस्थित' ही है न! उसे हमें 'व्यवस्थित' ही कहना है। चारित्र के लक्षण प्रश्नकर्ता : चारित्र कब कहेंगे? दादाश्री : जब बिल्कुल भी असर न हो तब वह चारित्र कहा जाएगा। दर्शन अर्थात् प्रतीति । ज्ञान की प्रतीति बैठ चुकी है, वह बात सौ प्रतिशत है। ज्ञान तो जैसे-जैसे अनुभव में आता है न, वैसे-वैसे लगता है कि यह तो निर्दोष है और हमने इसे दोषित मान लिया, वह हमारी भूल है। अत: यों जो कुछ ज्ञान में आ गया वह थिअरम में आ गया।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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