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[५.२] चारित्र
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अतः मोक्ष में जाते हुए दो प्रकार के ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप हैं। एक व्यवहार ज्ञान, व्यवहार दर्शन, व्यवहार चारित्र और व्यवहार तप। व्यवहार अर्थात् वह जो बाहर के लोगों को एक्सेप्ट हो जाए वही ज्ञान। बाह्य ज्ञान है लेकिन मोक्ष में जाने के रास्ते का ज्ञान है। बाह्य दर्शन, दर्शन अर्थात् श्रद्धा और चारित्र अर्थात् मोक्ष में जाते हुए अशुभ को छोड़ता है और शुभ चारित्र हो जाता है। उसके बाद में शुद्ध चारित्र आता है। पहले शुभ चारित्र आता है। अब वह शुभ चारित्र वाला साधु कहलाता है। शुभ चारित्र की परिभाषा क्या है ? 'जहाँ क्रोध आने लगे वहाँ पर क्रोध न करे तो शभ चारित्र कहलाता है।' शुभ चारित्र से संसार मार्ग सुधरता है, संसार शुभ हो जाता है। जबकि मोक्ष तो शुद्ध चारित्र से ही होता है! शुभ चारित्र में मान-कीर्ति की वासना नहीं होती और दूसरा, अगर हम अपमान करें तो भी समान रहता है। चिढ़ नहीं जाता और अगर चिढ़ जाए तो वह साधु है ही नहीं। सांसारिक लोग चिढ़ जाते हैं, साधु भी चिढ़ जाते हैं तो फिर डिफरेन्स क्या रहा? कोई परिभाषा तो होगी न या बिना परिभाषा का है यह? सोने की परिभाषा है और पीतल की परिभाषा नहीं है? वर्ना पीतल सोने के भाव बिकता न?
ऐसा करो, अच्छा करो, फलाना करो, प्रतिक्रमण करो, सामायिक करो, ऐसा तूफान यहाँ पर नहीं हैं। यहाँ करना कुछ भी नहीं है, यहाँ तो जानना है और समझना है। समझने से समकित होता है और जानने से ज्ञान होता है। और जिसने जान लिया और समझ लिया तो उससे सम्यक् चारित्र होगा।
महात्माओं का चारित्र प्रश्नकर्ता : श्रीमद् राजचंद्र ने कहा है न कि 'उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास'। (चारित्र का उदय होने पर वीतराग पद में वास रहता है)
दुनिया ने चारित्र देखा ही नहीं है, सुना ही नहीं है। लोग लौकिक चारित्र को चारित्र कहते हैं। कपड़े बदलने को चारित्र कहते हैं। शास्त्र मौखिक हो जाएँ तो, उसे भी चारित्र कहते हैं। क्या ये लोग जौहरी हैं?!