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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
तो दिखाई देता है न? अतः अंदर ज्ञाता-दृष्टा रहने को दरअसल चारित्र कहा जाता है। ज्ञाता-दृष्टा में रहना, वही चारित्र है।।
और अब, अगर किसी को आत्मज्ञान हो गया हो और वे अंदर चारित्र में रह सकें तो भगवान ने उस पर आपत्ति नहीं उठाई है। इतना ही देखना है कि अंदर ज्ञाता-दृष्टा में रहता है या नहीं। बाहर के भाग को जैसा बनना हो वैसा बने।
जो चारित्र मोह को देखता है, वह है सम्यक् चारित्र
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वह दर्शन है। वह दर्शन खुद की श्रद्धा में है। वे दोनों एकाकार न हों अर्थात् इसमें एकाकार नहीं हो तो उसी को चारित्र कहते हैं और एकाकार नहीं होने देने में जो कष्ट होता है, उस समय जो तप करना पड़ता है, वही तप कहलाता है।
इस देह में क्रोध, हर्ष व शोक सभी कुछ भरा हुआ है लेकिन अगर आत्मा उनमें तन्मयाकार न हो और पुद्गल के हर एक संयोग को पर परिणाम जाने तो उसे सम्यक् चारित्र कहा जाएगा!
दर्शन शुद्धि के बाद बाहर के संयोग आने पर अगर उनमें तन्मयाकार हो जाए तो वह चारित्र मोह है। जो ज्ञान चारित्र मोहनीय को देखता है, वह सम्यक् चारित्र है और आपको सम्यक् चारित्र में रख दिया है। बोलो! अब आपको क्या होगा फिर? सम्यक् दर्शन तो नहीं है लेकिन सम्यक् चारित्र तक रख दिया है आपको। जो ज्ञान, चारित्र मोहनीय को देखता है अर्थात् जब चंदूभाई चिढ़ जाएँ, जब चंदूभाई किसी से बहस करें और उसे आप देखते हो कि चंदूभाई बहस कर रहे हैं। चंदूभाई जो कुछ भी करते हैं, वह चारित्र मोहनीय कहलाता है और आप उसे देखते हो तो वह सम्यक् चारित्र है। ऐसी स्थिति में रख दिया है। लेकिन अगर समझ में आए तो वह कह सकेगा न!
लोग चारित्र मोहनीय को नहीं देख सकते । लोगों में चारित्र मोहनीय है ही नहीं। इस दुनिया के साधु-संन्यासियों में भी चारित्र मोहनीय नहीं