________________
२९२
आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
सकती। अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र तीनों ही अरूपी होने चाहिए। उस दृष्टि से तो, हम ये जो कपड़े पहनते हैं न, तो हमारे चारित्र को भी वे लोग चारित्र नहीं कहेंगे लेकिन उससे हमें आपत्ति नहीं है। दुःचारित्र कहेंगे तो भी हमें आपत्ति नहीं है। हमें तो, हमारा अरूपी ज्ञान-दर्शनचारित्र हमारे पास है। यह सारा रूपी फॉरेन की बात है। और इन फॉरेन (व्यवहार) की बातों में हम बहुत हाथ नहीं डालते, सुपरफ्लुअस रहते हैं। ये सारा फॉरेन के बारे में है, रूपी पूरा ही फॉरेन है।
कीमत है निश्चय चारित्र की प्रश्नकर्ता : चारित्र किसे कहेंगे? निश्चय को चारित्र कहेंगे? चारित्र क्या है ? समझाइए।
दादाश्री : चारित्र तो, व्यवहार चारित्र तो ये सभी जो हैं, वह। लेकिन वास्तव में इसे भी चारित्र नहीं कहा जाएगा। व्यवहार चारित्र शास्त्र के अधीन होना चाहिए। शास्त्रों के कहे अनुसार होना चाहिए। इसे चारित्र कह ही नहीं सकते न! व्रत-नियम वगैरह व्यवहार चारित्र में समा जाता है लेकिन त्याग नहीं। त्याग चारित्र में नहीं आता। उसे देह का चारित्र कहा जाएगा। जबकि आत्मा का चारित्र तो बस, ज्ञाता-दृष्टा रहना है। चंदूभाई का अपमान हुआ तब आप ज्ञाता-दृष्टा में रहो और चंदूभाई से कहो कि 'हम है आपके साथ'।
प्रश्नकर्ता : अभी आपने कहा कि ज्ञान से चारित्र बदल सकता है, दर्शन से चारित्र नहीं बदल सकता।
दादाश्री : दर्शन से ज्ञान में आता है। दर्शन अर्थात् क्या कि कोई भी वस्तु सही है, उसकी प्रतीति हो जाए तो उसी को दर्शन कहते हैं। यदि प्रतीति नहीं हुई है तो उसे दर्शन नहीं कहेंगे। यह बात सही है तो वह तो ये अज्ञानी लोग भी कहेंगे कि भाई यह बात सही है लेकिन उसे प्रतीति नहीं हुई है।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान से चारित्र बदलता है, तो वह कौन सा चारित्र बदलता है?