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________________ २७६ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) क्रमिक में ज्ञान-दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रश्नकर्ता : क्रमिक में पहले 'ज्ञान' बोलते हैं, उसके बाद 'दर्शन'। ऐसा क्यों? दादाश्री : क्रमिक मार्ग में पहले ज्ञान है और उसके बाद दर्शन और उसके बाद चारित्र। जबकि अपने अक्रम विज्ञान में पहले दर्शन उसके बाद ज्ञान और उसके बाद चारित्र है। यहाँ पर पहले उसे दर्शन हो जाता है। फिर जैसे-जैसे अनुभव होते जाते हैं, जितने अनुभव के अंश इकट्ठे होते हैं वैसे-वैसे स्पष्ट वेदन होता जाता है। आत्मा का स्पष्ट वेदन होता जाता है। जैसे-जैसे अनुभव होते जाते हैं वैसे-वैसे स्पष्ट विज्ञान होता जाता है। उसके बाद 'अनंता ज्ञेयों को जानने में परिणामित अनंती अवस्थाओं में मैं संपूर्ण शुद्ध हूँ, सर्वांग शुद्ध हूँ'। हर एक ज्ञेय में, उसे जानने में परिणामित हुई अवस्था में होने के बावजूद भी खुद पर ज़रा सा भी दाग़ नहीं पड़ता। सबकुछ देखता व जानता है फिर भी। प्रश्नकर्ता : तो क्या क्रमिक मार्ग में हर किसी को सतही (सुपरफ्लुअस) ज्ञान ही होता है? दादाश्री : हाँ। सतही ज्ञान ही। पहले व्यवहार सतही होता है और फिर अपने आप ही कुदरती रूप से ही जोइन्ट हो जाता है। वर्ना फिर भी कोई ज्ञानीपुरुष की ज़रूरत तो है ही। ये ज्ञान-दर्शन-चारित्र व्यवहार से हैं। निश्चय से दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं। प्रश्नकर्ता : हाँ, वह दर्शन-ज्ञान निश्चय से है लेकिन दादा, क्रमिक में उन लोगों को कभी तो निश्चय से ऐसा रहता होगा न दादा? दादाश्री : हाँ, इस ज्ञान में से... इस शास्त्रज्ञान को पढ़ते, पढ़ते, पढ़ते शब्दज्ञान पर आ जाते हैं और आत्मा शब्द पर उसे श्रद्धा हो जाती है। और उसे ऐसा लगता है कि 'हाँ, वास्तव में आत्मा ऐसा ही है, जैसा ये सब लोग कह रहे हैं। ये जो शब्द कह रहे हैं, वैसा ही है। यह अन्य कुछ नहीं है। वह प्रतीति बैठ जाती है लेकिन फिर बहुत धीरे, धीरे, धीरे। ग्रेज्युअली काम होता रहता है।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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