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________________ [२.५] वीतरागता १७५ (भावना की थी) छोड़े थे कि किसी को ऐसा ज्ञान हो और लोगों का कल्याण हो और फिर यह ज्ञान मुझे ही हो गया। मुझे पता नहीं था कि ऐसा ज्ञान हो जाएगा। प्रश्नकर्ता : यानी व्यवस्थित ने आपको पसंद किया। दादाश्री : व्यवस्थित के नियम ने। प्रश्नकर्ता : पुद्गल को तो कोई इच्छा ही नहीं होती न कि 'मुझे सब भगवान कहें?' दादाश्री : लेकिन पुद्गल की इच्छा नहीं होने के बावजूद भी पुद्गल उनके जैसा हो जाता है। एक्जेक्ट, भगवान स्वरूप की ही परछाई बन जाता है। प्रश्नकर्ता : तभी छूटा जा सकता है न! दादाश्री : हाँ। वीतरागता, वह दशा है प्रश्नकर्ता : वीतरागता और करुणा के बीच कोई संबंध है क्या? दादाश्री : वीतरागता उत्पन्न होने के बाद में करुणा है। करुणा उत्पन्न होने के बाद में वीतरागता नहीं है अर्थात् पहले करुणा नहीं है। वीतरागता उसका कारण है। प्रश्नकर्ता : करुणा वाले का व्यवहार कैसा होता है? दादाश्री : उसके व्यवहार में उसे खुद के शरीर का मालिकीपना नहीं रहता, वाणी का मालिकीपना नहीं रहता और मन का मालिकीपना नहीं रहता, तब करुणा उत्पन्न होती है। प्रश्नकर्ता : हम आपमें मूर्त रूप में करुणा देखते हैं। वीतरागता देखते हैं।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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