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आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध)
वीतद्वेष के बाद बचा डिस्चार्ज राग प्रश्नकर्ता : 'राग हो तो बाद में द्वेष होता है। राग लोभ का पर्याय है और सब से अंत में जाता है इसीलिए ऐसा भी हो सकता है कि राग हो लेकिन द्वेष न रहे, लेकिन जहाँ पर राग नहीं है वहाँ पर द्वेष नहीं है। राग मुख्य है, उसका क्षय होने पर संपूर्ण आत्म स्वरूप अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है', यह समझाइए।
दादाश्री : द्वेष का स्वभाव कड़वा है इसलिए कड़वा भाव छूट जाता है और राग मीठा है इसलिए रह जाता है। जो कड़वा है वह अच्छा नहीं लगता लेकिन अब एक बार घुस गया है तो वह कर भी क्या सकता है? लेकिन जब ज्ञान मिलता है तब या फिर उसकी दृष्टि बदल जाए, आत्म दृष्टि हो जाए तब फिर द्वेष छूट जाता है। आत्म दृष्टि होने से द्वेष खत्म हो जाता है क्योंकि वह कड़वा है। यदि मीठा होता तो खत्म ही नहीं होने देता उसे ! अतः राग अंत तक रहता है।
प्रश्नकर्ता : दादा, आप जब यह ज्ञान देते हैं तब ये जो राग और द्वेष हैं, उनमें से द्वेष तो उसी क्षण खत्म हो जाता है। ऐसा कैसे होता है?
दादाश्री : वह द्वेष पहले ही खत्म हो जाता है क्योंकि पापों का नाश हो जाता है। उसके बाद सिर्फ राग बचता है। वह राग भी धीरे-धीरे कम होता जाता है और वह राग भी डिस्चार्ज भाव से है, चार्ज भाव से नहीं है। धीरे-धीरे-धीरे कम होता जाता है और अंत में वीतराग कहलाता है। जब राग भी चला जाता है तब वीतराग कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : दादा, यदि राग डिस्चार्ज के रूप में ही है तो फिर द्वेष भी डिस्चार्ज के रूप में रहता है या नहीं?
दादाश्री : नहीं, द्वेष तो चला ही जाता है। अगर द्वेष रहे तो नए कर्म बंधेगे। जब तक द्वेष रहता है तब तक चिंता होती है। यहाँ तो एक भी चिंता नहीं होती। उसका क्या कारण है कि द्वेष खत्म हो जाता है। पहले ही दिन!