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[२.३] वीतद्वेष
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दादाश्री : मोटर में आपके साथ चार लोग बैठे हुए हों और उनमें से एक भाई आपसे कहे कि, 'पाँच मिनट दर्शन करके आता हूँ', तो आप चार लोग बैठे-बैठे, 'यह गया', उसे गालियाँ देते हो? क्या करते हो आप?
प्रश्नकर्ता : वह तो जो संयोग आया, उसे देखना है। अतः उसमें द्वेष तो होगा ही नहीं न हमें।
दादाश्री : नहीं, लेकिन आप क्या करोगे? समभाव से निकाल करोगे? फिर उन पर द्वेष नहीं करोगे न? आधा-पौना घंटा हो जाए तब भी?
प्रश्नकर्ता : हाँ, तब भी द्वेष नहीं होगा। दादाश्री : वही! आपको वीतद्वेष बना दिया है।
अतः मैंने आपको कौन से ज्ञान पर रख दिया है? आपका द्वेष बिल्कुल निकल गया है। अर्थात् मैंने आपके राग को नहीं रोका है। मैंने आपसे कहा है, 'हाफूस के आम, रस-रोटी वगैरह सब खाना-पीना। कपड़े पहनना, सिनेमा देखने जाना!' क्यों कहा है? आपको उस पर बैर नहीं है इसलिए। मैंने आपका द्वेष बंद करवा दिया है इसलिए पूरे दिन आप संयम में रहते हो। इस द्वेष के कारण ही सारा असंयम है। पूरे दिन राग नहीं रह सकता इंसान को, द्वेष ही रहता है !
अतः ऐसा है न, यदि द्वेष का परिणाम कम हो जाए न, तो राग रहने में हर्ज नहीं है। अभी आपको वीतद्वेष बनाने के बाद छोड़ दिया है। फिर भी आपको कोई वीतराग नहीं कहेगा। फिर भी आपको कहाँ तक की प्राप्ति हो गई है ? वीतद्वेष हो गए हो। आपके आर्तध्यान और रौद्रध्यान बंद हो गए हैं। ये आर्तध्यान और रौद्रध्यान, द्वेष हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान द्वेष कहलाते हैं या राग कहलाते हैं ? द्वेष हैं ये तो। जहाँ पर राग है, वहाँ पर क्या रौद्रध्यान हो सकता है ? जब राग होता है उस समय रौद्रध्यान नहीं हो सकता। जहाँ द्वेष है, वहीं पर रौद्रध्यान होता है।