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[२.३] वीतद्वेष
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और राग में पसंद खुद की
प्रश्नकर्ता : वीतराग किस तरह से हुआ जा सकता है ?
दादाश्री : वीतराग अपने आप ही हो जाते हैं। वीतराग होने के लिए कुछ करना नहीं है । वीतद्वेष होना सब से मुश्किल काम है I
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प्रश्नकर्ता : आपने उस दिन कहा था न कि द्वेष की वजह से ही राग है।
दादाश्री : हाँ, द्वेष में से ही सारा राग है। कड़वा खाने के बाद ज़रा यों ही दूसरा कुछ खाएँ तो उस चीज़ पर हमें राग हो जाता है ! उसे खाने से कड़वाहट ज़रा कम हो जाती है न ? और अगर यों ही खा लिया होता तो राग नहीं होता । अतः द्वेष में से ही राग उत्पन्न हुआ है। यानी पहले द्वेष जाता है और बाद में राग जाता है । राग अर्थात् पसंद की चीज़ है और द्वेष कुदरती है।
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मान लो अगर कोई एक बड़ा राजा है, बहुत ही सुखी है किसी पर राग-द्वेष नहीं करता, सभी के प्रति न्यायी है । ऐसे सच्चाई के व्रत वाला है कि 'मुझे किसी का कुछ भी नहीं लेना है ' । झूठ नहीं बोलता। लेकिन अगर वह जंगल में जाए और रास्ता भटक जाए और तब उसे भूख लगे तो उस समय क्या उसे राग होगा ? भूख लगने पर क्या होगा ? दुःख होगा और वेदना होगी न ? अब भूख लगने पर वह वहाँ क्या करेगा ? किसी भी तरह, झूठ बोलकर या चोरी करके कुछ खा लेगा । खाएगा या नहीं खाएगा? और किसी गरीब के बेटे की जूठी रोटी पड़ी हो तो वह भी खा लेगा या नहीं ?
प्रश्नकर्ता : खा लेगा। क्योंकि उसकी भूख जागी है।
दादाश्री : क्योंकि उसे अंदर जो दुःख हो रहा है, वह द्वेष है । जब पेट में इतना डालता है तब जाकर द्वेष शांत होता है। झूठ बोलकर हम किसी का कुछ ले आएँ और अगर कोई वह छीन ले तो उस पर द्वेष होगा या राग ?