________________
[२.३] वीतद्वेष
१२१
कि 'भाई, राग मत करना लेकिन इन लोगों के प्रति द्वेष तो करना?!' शराबी. व्यभिचारी लोगों के प्रति इन सब के प्रति द्वेष रखना, भगवान ऐसा कहते लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं कहा?
प्रश्नकर्ता : उस चीज़ पर राग मत करना तो फिर द्वेष नहीं होगा। दादाश्री : द्वेष को ही छोड़ना है। राग को छोड़ना ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : द्वेष छोड़ने से राग चला जाएगा?
दादाश्री : राग की तो चिंता ही मत करना। भगवान ने कहा है कि वीतद्वेष बन जा। उसके बाद अपने आप ही वीतराग बन जाएगा।
प्रश्नकर्ता : लोग ऐसा कहते हैं कि जहाँ पर राग अधिक होता है वहीं पर अधिक द्वेष हो जाता है।
दादाश्री : नहीं। द्वेष है इसलिए राग उत्पन्न होता है उसे। यदि मुझे किसी पर द्वेष होगा तो राग उत्पन्न होगा। मुझे द्वेष नहीं होता है, फिर मुझे राग कैसे उत्पन्न होगा? अतः द्वेष में से राग उत्पन्न हुआ है। इसमें द्वेष कॉज़ेज़ हैं और राग परिणाम है। अतः ऐसा कहते हैं कि 'तू परिणाम की चिंता मत कर, कॉज़ेज़ की चिंता कर'। इतनी सूक्ष्म बात समझी नहीं जा सकती न? यह बहुत सूक्ष्म, बहुत सूक्ष्म बात है !
प्रश्नकर्ता : द्वेष कॉज़ है और राग परिणाम, ऐसा किस तरह से है? दादाश्री : हाँ, द्वेष कॉज़ेज़ हैं और राग परिणाम है।
प्रश्नकर्ता : क्योंकि राग व द्वेष साथ में ही रहते हैं। जहाँ पर राग हो, वहाँ पर द्वेष रहता ही है।
दादाश्री : नहीं! द्वेष होता है और द्वेष के रिऐक्शन में राग होता है। यदि ज़रा सा भी द्वेष न हो तो राग उत्पन्न ही नहीं होगा।
पहले द्वेष, सूक्ष्म में द्वेष के आधार पर ही यह खड़ा है। इसका फाउन्डेशन द्वेष ही है।