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[२.१] राग-द्वेष
पहले तो अगर साहब कुछ उल्टा-सीधा करते थे तो हमें रात-दिन उसी बारे में विचार आते रहते थे और मन में ऐसा होता रहता था कि 'अगर मौका मिले तो साले को चपेट में ले लूँ'। उसके लिए जो खराब विचार आते थे, उन सब को द्वेष कहा जाता है और यदि कोई बॉस हमारी बहुत हेल्प करे तो उसके लिए बहुत अच्छे भाव होते हैं तो वह राग कहलाता है, बस। अब द्वेष भी नहीं होता और राग भी नहीं होता, समभाव से निकाल हो जाता है।
क्रियाएँ सभी प्राकृतिक हैं। उनमें राग-द्वेष नहीं हों, वही मोक्ष है। अगर कड़वे पर द्वेष और मीठे पर राग होता है तो वह अज्ञानता का स्वभाव है। अज्ञान चला जाए तो कड़वा-मीठा नहीं रहेगा।
फिर वह है भरा हुआ माल प्रश्नकर्ता : ज्ञान लेने से पहले और अभी भी कई बार ऐसा होता है कि हमें खुद को कोई तकलीफ हुई हो और वैसी ही कोई तकलीफ किसी और को भी हो जाए तो अंदर से ऐसा लगा कि 'अच्छा हुआ जो ऐसा हुआ'। वह क्या है ?
दादाश्री : ऐसा जो होता है कि 'अच्छा हुआ' तो वह द्वेष का परिणाम है और अगर ऐसा लगे कि 'बुरा हुआ' तो राग का परिणाम है। वे जो राग-द्वेष के परिणाम के भाव अंदर भरे थे, वह माल आज निकल रहा है। भगवान के वहाँ कुछ भी अच्छा या बुरा है ही नहीं। सभी कुछ ज्ञेय ही है। वह सिर्फ जानने योग्य ही है।
प्रश्नकर्ता : जब ऐसा हो तब क्या करना चाहिए? प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए?
दादाश्री : जब ऐसा हो तो उसे देखना है, यहाँ पर ऐसा हुआ और यहाँ पर ऐसा हआ। इसमें हमें यही देखना है। और यदि कभी द्वेष परिणाम से सामने वाले व्यक्ति के साथ कुछ ज़्यादा ही अन्याय होने लगे तो वहाँ पर चंदूभाई से ऐसा कहना है कि, 'भाई, तुम प्रतिक्रमण करो। तुमने ऐसा क्यों किया? अतः प्रतिक्रमण करो'। अगर ऐसा कुछ ज़्यादा