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[२.१] राग-द्वेष
प्रश्नकर्ता : मन विरोध करे तब वीतरागता कैसे रह सकती है?
दादाश्री : रह सकती है। मन के विरोध को तो देखते रहना है। मन को तो पूरा देखना ही है न! मन दृश्य है।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् जहाँ मन का विरोध होता है, वहाँ वीतरागता नहीं रह सकती लेकिन ज्ञाता-दृष्टा रहा जा सकता है।
दादाश्री : ज्ञाता-दृष्टा रहना ही वीतरागता है। राग-द्वेष रहित हुए बगैर ज्ञाता-दृष्टा में नहीं रह सकते। जितने समय तक राग-द्वेष रहित रहे उतने समय तक ज्ञाता-दृष्टा रह सकेंगे।
प्रश्नकर्ता : मन का विरोध बहुत लंबे समय से चल रहा हो लेकिन फिर यदि एक्जेक्टनेस में यह दिखाई दे कि, 'यह मन ज्ञेय है और हम ज्ञाता है', तो मन का वह विरोध खत्म हो जाता है।
दादाश्री : उसका समाधान होते ही खत्म हो जाएगा। बस! मन समाधान ढूँढता है, किसी भी तरीके से, एट एनी वे। अगर आप कह देते हो कि 'समाधान हो गया' तो वह खत्म हो जाएगा, पूरा बल्ब उड़ जाएगा उस क्षण।
प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा होता है कि उस समय मन को समाधान हो जाता है लेकिन वह रिलेटिव ज्ञान से होता है तो फिर वापस उसका रिऐक्शन तो आएगा ही न?
दादाश्री : उसके पीछे अवस्थाओं के रिएक्शन होते हैं। एक परत चली जाती है, फिर दूसरी परत आती है। हर एक चीज़ परत वाली होती
है।
अब लोग तो यह नहीं जानते कि ऐसी स्थितियाँ होती हैं! क्या लोग ऐसा जानते हैं? इस चीज़ की कल्पना भी नहीं है न लोगों को।
महात्माओं में नहीं रहे राग-द्वेष राग-द्वेष रहित जो सारी क्रियाएँ हैं, वे पुद्गल की क्रियाएँ हैं।