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सम्यक् बुद्धि ही प्रज्ञा है ? नहीं। प्रज्ञा सम्यक् बुद्धि से भी आगे की चीज़ है। प्रज्ञा तो प्रतिनिधि है मूल आत्मा की, इसीलिए मूल आत्मा ही कहलाती है।
अज्ञाशक्ति ने ही संसार में भटका दिया है। अज्ञा के साथ बहुत बड़ी सेना है। क्रोध-मान-माया-लोभ और अहंकार वगैरह सबकुछ बहुत विषम होते हैं और प्रज्ञा के पास कुछ भी नहीं है, अहंकार भी नहीं है इसलिए वहाँ पर 'हमें' खुद हाज़िर रहना चाहिए। यदि 'हम' प्रज्ञा पक्ष में रहेंगे तो प्रज्ञा सबकुछ कर सकेगी। अंदर ज़रा सी भी चंचलता उत्पन्न हुई कि तुरंत ही दरवाज़े बंद कर देने चाहिए।
अज्ञा सफोकेशन करवाती है। उससे अपना सुख आवृत हो जाता है। अब चिंता नहीं होती।
__ अज्ञान दशा में इच्छाएँ उत्पन्न होती थीं, उन्हें पूर्ण करने के लिए अज्ञाशक्ति काम करती थी। ज्ञान के बाद नई इच्छाएँ उत्पन्न नहीं होती इसलिए पिछले बीज में से नए बीज नहीं पड़ते और जो हैं, उनका निकाल कर देना है।
__ क्या प्रज्ञाशक्ति को बढ़ाया जा सकता है ? प्रज्ञा कम या ज्यादा नहीं होती। बुद्धि कम-ज्यादा होती रहती है। जितनी बुद्धि कम उतनी ही प्रज्ञा अधिक।
प्रज्ञा ही मूल जागृति है। कम-ज्यादा दिखाई देती है इसलिए जागृति कहते हैं। प्रज्ञा फुल तो संपूर्ण जागृति।
आपको 'आज्ञा' का पालन करना है और पालन करवाती है प्रज्ञा । आज्ञा ही धर्म है और आज्ञा ही तप है। जब तक तप है तब तक प्रज्ञा
है।
ज्ञानक्रिया महात्माओं की प्रज्ञा के माध्यम से होती है।
जो तन्मयाकार हो जाती है, वह अज्ञा है और जो न होने दे, वह प्रज्ञा। समझने की और देखने की शक्ति प्रज्ञा की है। ज्ञानी समझाते हैं और ग्रहण कौन करता है? प्रज्ञा।
ज्ञान मिलने के बाद अंदर लाइट प्रज्वलित रहती है। वह तो निरंतर
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