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________________ ७४ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) दादाश्री : तब तक, ठेठ तक प्रज्ञा है। केवलज्ञान होने के बाद नहीं रहती। प्रश्नकर्ता : केवलज्ञान होने के बाद में तीर्थंकर बनते हैं अथवा केवली बनते हैं तो फिर उनकी कृपा का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि प्रज्ञा नहीं है। दादाश्री : पूर्ण हो जाता है न! सबकुछ खत्म हो जाता है। जब तक प्रज्ञा है तब तक देह के साथ कुछ लेना-देना है, उसके बाद तो देह से बिल्कुल अलग! हमें केवलज्ञान नहीं हुआ है। हाँ, फिर भी हमने यह देखा है कि केवलज्ञान क्या है। जगत् कल्याण में अहंकार निमित्त है और प्रज्ञा करवाती है प्रश्नकर्ता : हमें निमित्त बनाकर जगत् कल्याण का काम कौन करवाता है? दादाश्री : वह सब प्रज्ञाशक्ति का काम है। प्रज्ञाशक्ति सब करवाती है। इसमें आत्मा कुछ नहीं करवाता। आत्मा में करवाने की कोई शक्ति है ही नहीं। इगोइज़म निमित्त है। प्रश्नकर्ता : निमित्त है इगोइज़म। 'मैं कर रहा हूँ, वह निमित्त दादाश्री : हाँ, कौन करवाता है ? प्रज्ञाशक्ति। सबकुछ प्रज्ञाशक्ति का ही कामकाज है। प्रश्नकर्ता : अब यह सब जो दिखाई देता है, वह आत्मा में दिखाई देता है लेकिन देखने वाला तो उससे परे है न? दादाश्री : आत्मा में सब प्रतीत होता है। अलग है, ऐसा दिखाई देता है। प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन जो उसका वर्णन करता है, वह देखने वाला तो उससे परे ही है न?
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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