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[१] प्रज्ञा
प्रश्नकर्ता : लेकिन टुकड़े नहीं किए जा सकते हैं न आत्मा के, प्रतिष्ठित आत्मा और मूल आत्मा के?
दादाश्री : वह उलझ जाएगा बल्कि। सभी कुछ धारण करके रखने की शक्ति हो, तब जाकर वह उसके सभी विभागों सहित जान सकता है। उतनी जागृति होनी चाहिए न! चारों तरफ लक्ष (जागृति) में रखना चाहिए। हम उसका एक-एक अंश जानते हैं।
प्रश्नकर्ता : इस स्थितप्रज्ञ की जो बात है, वह ज़रा और विस्तार से समझाइए।
दादाश्री : वह तो जब कोई व्यक्ति शास्त्रों का खूब अध्ययन करता है, संतों की सेवा करता है, खूब मेहनत से व्यापार करता है और व्यापार में नुकसान हो जाता है, तब इन सभी प्रकार के अनुभवों में से पार निकलता जाता है। फिर आगे पहुँचकर जब बुद्धि स्थिर हो जाती है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। इधर से हवा आए तो भी यों हिल नहीं जाता, इधर से आए तो भी यों हिल नहीं जाता। ऐसी स्थिर बुद्धि हो तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
स्थितप्रज्ञ दशा बहुत ही सद्विवेक वाली जागृति दशा है। वह अनुभव करते-करते आगे बढ़ता है। जनकविदेही की दशा स्थितप्रज्ञ से भी बड़ी थी।
स्थितप्रज्ञ दशा की तुलना में प्रज्ञाशक्ति बहुत उच्च दशा है। स्थितप्रज्ञ दशा में तो वह व्यवहार में एक नंबर होता है। दूसरा, जिसके प्रति लोगों की तरफ से निंदा जैसी चीज़ न रहे, वह अपने आपको स्थितप्रज्ञ मान सकता है लेकिन यह प्रज्ञा तो मोक्ष में ही ले जाती है। स्थितप्रज्ञ को तो अभी मोक्ष में जाने के लिए बहुत लंबा मार्ग तय करना पड़ेगा।
अक्रम में तो बहुत उच्च दशा प्रश्नकर्ता : तो यह स्थितप्रज्ञ, वह प्रज्ञा से पहले की स्थिति है ? दादाश्री : यह प्रज्ञा से पहले की स्थिति है लेकिन लोगों ने तो