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________________ २८ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) अगर अंदर मन भी वैसा ही हो चुका हो न, तब भी ज़ोर लगाती है। ज्यादातर तो बुद्धि ही जोर लगवाती है। प्रश्नकर्ता : जिज्ञासा प्रज्ञा का भाग कहलाती है या बुद्धि का? दादाश्री : बुद्धि का। प्रज्ञा तो होती ही नहीं है न! यदि प्रज्ञा उत्पन्न हो जाए तो ज्ञानी कहा जाएगा। लेकिन जिज्ञासु की बुद्धि कैसी होती है ? समझदारी वाली, गढ़ी हुई बुद्धि, सम्यक् बुद्धि होती है। क्या सम्यक् बुद्धि और प्रज्ञा एक ही हैं? जितने समय तक मेरे साथ बैठे, बुद्धि उतनी ही सम्यक् होती जाएगी लेकिन प्रज्ञा उत्पन्न नहीं होगी। प्रज्ञा तो ज्ञान के बिना उत्पन्न हो ही नहीं सकती। जिसे स्थितप्रज्ञ दशा कहते हैं न, वह तो जब क्रमिक मार्ग में कभी ज्ञान की उच्च दशा तक पहुँचने पर प्रकाश दिखाई देता है, वह है। जबकि यहाँ पर तो हमारे ज्ञान देते ही प्रज्ञा शुरू हो जाती है। यहाँ मेरे पास आकर बैठे न, तो जिसने ज्ञान नहीं लिया हो तो भी उसकी बुद्धि सम्यक् हो जाती है। प्रज्ञा डायरेक्ट प्रकाश है और सम्यक् बुद्धि इनडायरेक्ट प्रकाश है अर्थात् प्रज्ञा डायरेक्ट आत्मा का ही भाग है। जबकि सम्यक् बुद्धि वैसी नहीं है। फिर भी उसका भी निबेड़ा तो लाना ही पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : लेकिन सम्यक् बुद्धि उपकारी तो है न? दादाश्री : जब तक इस स्टेशन तक नहीं पहुँचे हैं, तब तक उपकारी है। इस स्टेशन पर पहुँचने के बाद, इससे आगे जाने के लिए वह उपकारी नहीं है। प्रश्नकर्ता : लेकिन ज्ञान लेने के बाद सम्यक् बुद्धि नहीं रहती या फिर रहती है? दादाश्री : ज्ञान लेने के बाद तो प्रज्ञा उत्पन्न हो जाती है। उसके बाद समभाव से निकाल करने में प्रज्ञा हेल्प करती है। अतः सम्यक् बुद्धि
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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