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________________ ४८२ आप्तवाणी-९ वह पुरुषार्थ है। वह पुरुषार्थ ही काम करता है लेकिन कई जगहों पर पुरुषार्थ कम होता है। अधिकतर तो यों ही तन्मयाकार रहा करता है। पता चले बिना ऐसे ही बीत जाता है पूरा दिन ही! और फिर कहेगा 'मैंने देखा-जाना!' अरे, क्या देखा-जाना? ऐसा किसके लिए कह रहा है? भूत देखे क्या तूने? देखना तो क्या है? कि 'व्यवस्थित' तन्मयाकार होने दे रहा हो, उसे जानना कि 'व्यवस्थित' इस तरफ ले जा रहा है, उसे खींचकर हमें इस तरफ लाना है और खुद को 'उसमें' रखकर और वहाँ से वापस देखना है और क्या जलन होने लगी, उसे देखना है। पुरुषार्थ ऐसा कुछ होता है, पुरुषार्थ अर्थात् पुरुष के आधार पर होता है। क्या ऐसा आसान है 'देखना-जानना'? लेकिन सभी 'महात्मा' ऐसा कहते हैं 'हम तो दादा, देखते हैं और जानते हैं, पूरे दिन वही।' मैंने कहा, 'बहुत अच्छा।' क्योंकि गहन बात का उन्हें पता नहीं चलता और मुझे सिरदर्दी हो जाती है। यह तो आपके कारण ऐसी गहन बात कर रहा हूँ। नहीं तो गहन बातें की ही नहीं जा सकती। प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, इसकी ज़रूरत है। दादाश्री : लेकिन किससे करूँ? वह तो, कुछ ही लोग होते हैं, जिनसे की जा सकती है यह बात। 'अक्रम विज्ञान' की लब्धि यह 'ज्ञान' लिया इसलिए खुद आत्मा है लेकिन वह सर्वस्व आत्मा नहीं है। वह प्रतीति आत्मा है। तब प्रकृति उपशम होती है, तब भी वह प्रतीति आत्मा है। अपने सभी 'महात्माओं' में प्रतीति आत्मा हैं। प्रश्नकर्ता : यानी इस 'ज्ञान' के बाद संपूर्ण प्रकृति अभी तक उपशम भाव को प्राप्त है। दादाश्री : हाँ, लेकिन उपशम भाव को प्राप्त, अर्थात् बहुत हो गया। इतना आया न, उपशम भाव को प्राप्त किया, वही सब से बड़ा
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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