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आप्तवाणी - ९
अलग
दादाश्री : वह तो ऐसा लगता है, लेकिन यों जुदाई रहती है। जब तक वह समझ में फिट नहीं हो जाता तब तक ऐसा ही लगेगा कि ' हैं।' मुँह से कहते ज़रूर हैं कि हम सब एक हैं लेकिन जब तक समझ में फिट नहीं हो जाए तब तक अलग ही लगता रहता है । वह समझ में फिट हो जाना चाहिए। अर्थात् मुझे पूरे जगत् में कोई अलग लगता ही नहीं। ऐसा नहीं है कि जितने यहाँ पर आए हैं उतने ही मेरे हैं। ये सभी मेरे हैं और मैं सभी का हूँ !
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जितनी अभेदता रहती है, उतनी ही खुद के आत्मा की पुष्टि होती है। हाँ, सब से भेद है, ऐसा मानते हैं इसीलिए तो खुद के आत्मा की सारी शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई है न! भेद है, ऐसा मानने से ही यह झंझट हुई है न! आपको अब भेद रहता है किसी से ?
प्रश्नकर्ता : लेकिन वे सारे भेद खत्म करना हैं ।
दादाश्री : क्या बात कर रहे हो ? भेद खत्म किए बगैर तो चारा ही नहीं है न! अभेद होना पड़ेगा न ? ! पोतापणुं गया, इसका मतलब ही यह है कि भेद खत्म हो गए । अब, जब तक बुद्धि रहती है तब तक पोतापणुं नहीं छोड़ता न! और जब तक बुद्धि है तब तक बुद्धि भेद डालती है न! यह पोतापणुं चला जाएगा तो अभेद हो सकेंगे।
'आपापणं' सौंप दिया
देखो, मैं आपको बता देता हूँ, ऐसे करते-करते हमारा बहुत समय बीत गया इसलिए आपको तो मैं सीधा रास्ता बता रहा हूँ । मुझे तो रास्ते ढूँढने पड़े थे। आपको तो, मैं जिस रास्ते गया था, वह रास्ता दिखा देता हूँ, ताला खोलने की चाबी दे देता हूँ ।
ये ‘अंबालाल मूलजी भाई पटेल' हैं न, उन्होंने खुद का आपापणुं ( पोतापणुं ) छोड़कर भगवान को ही सौंप दिया है तो भगवान उनका सभी संभाल लेते हैं और ऐसा संभालते हैं न, सही में! लेकिन खुद का आपापणुं छूट गया, अहंकार चला गया उसके बाद । वर्ना, अहंकार ऐसा नहीं है कि चला जाए।