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________________ ४१६ आप्तवाणी-९ 'ज्ञानीपुरुष' की तरह देह के लिए निस्पृही और आत्मा के लिए स्पृही, अर्थात् सस्पृही-निस्पृही बन। इन दोनों में से एक में रहना। बाकी, निस्पृही बिल्कुल मत बन जाना। वर्ना पत्थर ही बन जाएगा। 'मुझे क्या?' नहीं कहना चाहिए। ___ 'मुझे क्या?' कहना वह सारी बुद्धि का फँसाव है। बुद्धि क्या नहीं फँसाती? और वह ऐसा जो कहता है न, वह उसे बुद्धि ही फँसाती है। फिर भी किसी में यह साहजिक हो चुका होता है, इसलिए बुद्धि का उपयोग नहीं करना पड़ता, यों ही अबुद्धिपूर्वक कहता है। बुद्धिपूर्वक कहे तब तो ऐसा साहजिक नहीं कहेगा। अबुद्धिपूर्वक अर्थात् यों ही सहज यों ही मुँह से निकल जाता है। कहेगा 'मुझे क्या?' किसी के लिए अगर यह सहज हो गया है तो वह क्या करे अब? फिर भी सुधारना है अब। इसीलिए तो हम 'मेन लाइन' बदल लेते हैं, कौन सी 'लाइन' पर रहना है वह 'लाइन' बना देते हैं। 'मुझे क्या?' वाली 'लाइन' तो 'यूज़लेस लाइन' है। वह 'लाइन' बिल्कुल गलत थी, खत्म कर दो। दूसरी 'रेल्वे लाइन' डाल देते हैं, तो उस पर यह गाड़ी चलाना। प्रश्नकर्ता : अंदर से अपना पक्का रखना है, खुद का मार्ग नहीं चूकना है। दादाश्री : मार्ग नहीं चूकना है। और जान-बूझकर चूक जाए, ऐसा होगा भी नहीं। वह तो अनजाने में ही चूक जाता है। मोक्ष का मार्ग कोई जान-बूझकर नहीं चूकता। कान देकर सुनना... किसी से कोई झंझट हो जाए तब, वहाँ कोई बैठा हो, और फिर वह मिल जाए तो उसे पूछेगा न कि मेरे जाने के बाद वह क्या कह रहा था? ऐसा होता है या नहीं होता? प्रश्नकर्ता : हाँ, ऐसा होता है। वह क्या कहलाता है? दादाश्री : वह चीज़ पूरा मोक्षमार्ग ही खत्म कर देती है। 'मेरे
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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