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________________ ३९८ आप्तवाणी-९ प्रश्नकर्ता : इसमें फिर कपट किस तरह आया? दादाश्री : क्रोध-मान-माया-लोभ को तो कम कर लेता है। कपट बहुत करता है। कपट अर्थात् संसारी दशा भी नहीं, संसारी से भी हीन दशा! जो कपट रहित लोग होते हैं, वे सरल होते हैं। कपट वाली प्रकृति बहुत मुश्किलें खड़ी करती है। प्रश्नकर्ता : एक आदमी ने गाली दी तो उसमें कपट कहाँ आया? दादाश्री : उसमें कपट नहीं होता। कपट तो, जब खुद का लाभ उठाता है, तब जो क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, उनमें से माया अर्थात् कपट । एकदम थोकबंध हो चुका है कपट। लेकिन हिसाब तो बंध गया है कपट से। सभी जगह पर कपट हिसाब ही बंधवाता है। वर्ना तो कोई नाम ही न ले। यह 'ज्ञान' दिया है, इसलिए कषाय होते ही नहीं हैं। यह तो पहले की आदत है न, चखने की, इसलिए उस तरफ जाता है। मना करता हूँ तो भी खा आता है। यह 'ज्ञान' ही ऐसा है कि कपट रहता ही नहीं, किसी भी इंसान में। प्रश्नकर्ता : यह कपट जागृति नहीं रहने देता? दादाश्री : जागृति तो क्रोध-मान-माया-लोभ भी नहीं रहने देते। कपट तो मूर्च्छित कर देता है। खुद को भी पता नहीं चलता कि क्या कपट हुआ है। खुद को पता नहीं चलने देता कि मैं कपट कर रहा हूँ! क्रोध-मान-माय-लोभ के समय तो भान आ भी जाता है लेकिन कपट तो बहुत गूढ़ होता है। इसमें करने वाले को भी पता नहीं चलता। प्रश्नकर्ता : इसमें करने वाले को पता नहीं चलता तो वह पहचानेगा कैसे? कपटी को खुद को ही पता नहीं चलता तो वह दोष को निकालेगा किस तरह? दादाश्री : उसे खुद को नहीं, सभी को! कपट हो गया, ऐसा पता ही नहीं चलता।
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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