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आप्तवाणी-९
उसकी पकड़ ही नहीं होती अब बाहर दूसरा कोई बात कर रहा हो, तो हमारा सही है, यह हमने जो पकड़ा है, वह सही है' ऐसा इंसान को रहता है। यह 'ज्ञान' मिलने के बाद भी अगर ऐसा रहे तो उसे भगवान ने अहंकार कहा है। इस अहंकार को निकालना पड़ेगा।
बाहर का कोई व्यक्ति यदि अपमान करे, नीचा दिखाने जाए, तो उस बात को पकड़ लेता है, और अगर हठ करवाए तो हठ भी कर लेता है। यदि हठ किया, हठ पर चढ़ गया तो मिथ्यात्व घेर लेता है। फिर उपयोग खत्म हो जाता है। वह सारा मिथ्यात्व फैलाता है। भयंकर रोग कहलाता है यह तो!
इस दुनिया में सत्य चीज़ होती ही नहीं है। सत् अविनाशी है। अन्य कोई सत् है ही नहीं। बाकी का सारा सापेक्ष भाव है और उसकी पकड़ पकड़ते हैं। देखो न!
भगवान के वहाँ सत्य और असत्य, कुछ है ही नहीं। यह सब तो समाज के अधीन है। समाज में सभी तरह के लोग होते हैं। अतः समाज के अधीन है, यह सारा ही लेकिन भगवान के वहाँ द्वंद्व है ही नहीं न! फायदा-नुकसान भी नहीं है। भगवान के वहाँ संबंध-वंबंध कुछ है ही नहीं और फिर ऐसा बगैर संबंधवाला मुझे दिखाई भी देता है। मैं देख सकता हूँ, किस तरह से संबंध नहीं है वह सब दिखाई भी देता है मुझे। बिल्कुल भी संबंध नहीं है, नाम मात्र को भी संबंध नहीं है। यह तो, एक पेड़ पर पंद्रह-बीस पक्षी आएँ, तो कुछ इधर से आते हैं, कुछ उधर से आते हैं, और रात को मुकाम किया, सब इकट्ठे हो गए। तब फिर सब ऐसा कहते हैं कि अपने बीच कोई संबंध है! तो संबंध के नाम से चला है यह लेकिन सवेरे तो सब उड़ जाते हैं वापस। अतः संबंध जैसा कुछ है ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : इससे ट्रेन का उदाहरण अच्छा रहेगा। लंबी यात्रा में इकट्ठे होते हैं न?