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आप्तवाणी-९
बुद्ध बन गए! बल्कि मोक्ष के अंतराय डाले। आपको समझ में आया अंतराय?
प्रश्नकर्ता : उस अंतराय को दूर कैसे करें?
दादाश्री : उसे दूर करने के लिए लघुतम भाव करते जाना चाहिए, तो सभी अंतराय खत्म हो जाएँगे। 'प्लस-माइनस' करेंगे न, तो सभी अंतराय खत्म हो जाएँगे। अतः ये जो सभी अंतराय हैं, वे गुरुतम भाव से खड़े हुए हैं, और अगर लघुतम भाव करेंगे न, तो फिर सभी अंतराय खत्म हो जाएँगे।
हमें गुरुतम का क्या करना है? फायदा क्या है उसमें? जितना ऊँचा चढ़ेगा, उतना ही नीचे गिरेगा। उसके बजाय नीचे बैठे रहना क्या बुरा है? कुछ झंझट ही नहीं न! और अपना सुख अपने पास हो और जब मोक्ष में जाना होगा तब धर्मास्तिकाय खुद ही ले जाएगा, आपको कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है इसलिए लघुतम में आ जाओ न! तो सारा हल आ जाएगा। लघुतम में आ जाना, वही है अपना पूर्ण पद! यह हमारा लघुतम स्वरूप है, तभी तो गुरुतम स्वरूप रह सकता है। हाँ, लघुतम हुए बिना कोई गुरुतम नहीं हुआ है।
और जहाँ मैं लघुतम हो गया हूँ, वहाँ लोग गुरुतम बनने जाते हैं। उन्हें 'रिलेटिव' में गुरु बन बैठना है, वे 'रिलेटिव' में ही गुरु बनना चाहते हैं। गुरु यानी जिन्हें ऐसी भावना है कि 'मैं कुछ बड़ा बनूँ'। 'रिलेटिव' में तो जो लघुतम बनने जाते हैं, वे ऊर्ध्वगति में जाते हैं लेकिन 'रिलेटिव' में कोई ऐसा बताता ही नहीं है न कि लघुतम होना है ! और 'रिलेटिव' में जो कोई गुरुतम बनने जाता है, फिर उनके दो पैर बढ़ जाते हैं। उसमें किसी का क्या दोष?! हाँ, जहाँ लघु बनना है, वहाँ गुरु बनने चला इसलिए उसके फल स्वरूप दो पैरों में से चार पैर हो जाते हैं और ऊपर से एक पूँछ। क्योंकि गुरुतम द्वारा ऐसे कार्य हो जाएँगे कि दो पैरों में से चार पैर हो जाएंगे। जबकि लघुतम मान्यता से कार्य बहुत सुंदर होंगे। लेकिन पूरा जगत् गुरुता ढूँढता है न!