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________________ ३३८ आप्तवाणी - ९ प्रश्नकर्ता : यानी इस गारवता के जो सुख मिलते हैं वे... दादाश्री : उनकी कीमत और इसकी कीमत दोनों एक समान मान ले, दोनों की कीमत ही एक जैसी कर दे । प्रश्नकर्ता : लेकिन किस-किसकी कीमत ? दादाश्री : इस गारवता की और दूसरी चीजें देते हैं न, खाने-पीने का मिल रहा हो, वह | कीमत एक सरीखी कर दे तो वह खत्म हो जाती है। इसमें भी कहाँ सुख है और इसमें भी कहाँ सुख है, जो ऐसा सब जानता है, वह उसे खत्म कर देता है । गारवता को तो लोग समझते ही नहीं । प्रश्नकर्ता : लेकिन जिसने 'ज्ञान' लिया है, क्या उसके लिए गारवता में से छूटने का इसके अलावा और कोई रास्ता है ? दादाश्री : लेकिन 'चंदूभाई' पर असर रहता है या 'शुद्धात्मा' पर असर रहता है? गारवता का असर रहता है तो ‘चंदूभाई' कहलाएगा। और गारवता का असर नहीं रहता तो 'शुद्धात्मा' हो गए । प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, हम यहाँ आए हैं, दादा के दर्शन करने हैं, दादा के साथ बैठना है, उसमें भी वह जो रुचि रहती है, वह भी गारवता ही कहलाएगी न ? दादाश्री : नहीं। वह गारवता नहीं है । उसे गारवता कैसे कहेंगे ?! यह तो मुख्य चीज़ है। यह तो अमृत जैसी बात है । हममें गारवता बिल्कुल भी नहीं है। रस गारवता नहीं है, रिद्धि गारवता नहीं है, सिद्धि गारवता नहीं है! किसी भी प्रकार की गारवता नहीं है। पूरा जगत् गारवता में ही सड़ता रहता है। ‘ज्ञानी' गारवता में नहीं रहते । मुक्ति पाना 'ज्ञानी' के आश्रय में भगवान तो मेरे वश हो चुके हैं। भगवान जिनके वश में हो चुके हैं ऐसे 'ज्ञानीपुरुष, ' में कौन-कौन से गुण नहीं होंगे? उनमें गर्व
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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