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________________ ३३२ आप्तवाणी-९ में! विषय की गंध के लिए कलह भुगतता है। यानी इस दुनिया के लोग रूप गारवता, विषय गारवता, रस गरवता, मोह-लोभ की गारवता में ही रचे-बसे हैं और इसलिए उन्हें बाहर निकलना अच्छा नहीं लगता। प्रश्नकर्ता : दादा, हमारे लिए ऐसा कहा जा सकता है कि लक्ष्मी, प्रतिष्ठा, मान-तान, वह जो कुछ मिला है उसमें भैंस जैसे बनकर ही बैठे हैं? दादाश्री : हाँ, भैंस जैसे बनकर बैठे हैं। प्रश्नकर्ता : उस गारवता में से निकालनेवाला कोई चाहिए न? दादाश्री : उस गारवता में से निकालनेवाला चाहिए न ! ऐसे कौन लुभाता है ? ऐसा क्या-क्या रखें कि फिर वह ललचाए? बिनौले और गुड़ की ओर ध्यान नहीं दिया, तो अब किस तरह ध्यान देगी वह?! फिर क्या भैंस बाहर निकलेगी? उसे रस गारवता कहते हैं। प्रश्नकर्ता : इस गारवता का स्वाद लेनेवाला अंत:करण में कौन होता है? दादाश्री : लेनेवाला कौन होगा भला? वह अहंकार ही, और कोई नहीं। बुद्धि समझा देती है कि 'यह गारवता है, बहुत मज़ा आएगा।' प्रश्नकर्ता : उसमें मुख्य रूप से चित्तवृत्ति का भी होता है न? दादाश्री : चित्तवृत्ति तो वहीं के वहीं भटकती है। प्रश्नकर्ता : गारवता के स्थानों में ? दादाश्री : हाँ, वहीं पर घूमती रहती है। जैसे मक्खी भिनभिनाती है, वैसे। ऐसा है, यह अभिप्राय से मन बना है और मन को बहुत बड़ी चीज़ माना गया है। अब अभिप्राय क्यों खड़ा हुआ? विशेष भाव से अहंकार खड़ा हुआ, और अहंकार से अभिप्राय बना। अब अभिप्राय से मन बना, और मन बनने से चित्त की अशुद्धि होने लगी और जैसे-जैसे
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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