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________________ [४] ममता : लालच २५७ कहलाता। बाकी सभी बातों में लालची कहा जाएगा। यह लालच नहीं कहलाता। मेरे साथ रहना तो स्वार्थ भी नहीं कहलाता। मेरे साथ आप जो स्वार्थ रखोगे, वह परमार्थ ही है! प्रश्नकर्ता : मैं यहाँ आया और खिंचकर आया हूँ लेकिन ज्ञान लेने के लालच से ही आया हूँ न! दादाश्री : वह लालच तो सब से अच्छा! वह सर्वोत्तम लालच है! जो यह लालच नहीं रखे न, उसे तो हम कहेंगे कि, 'जरा कमी है आपमें, पक्के नहीं हो।' लालच तो इसी का रखने जैसा है। बाकी, संसार में किसी चीज़ का लालच रखने जैसा है नहीं। लालच तो इसी चीज़ का रखने जैसा है। आपने रखा वह उत्तम काम किया। प्रश्नकर्ता : लेकिन यह ज्ञान का लालच कहलाएगा? दादाश्री : किस हेतु के लिए लालच है, वह देखा जाता है क्योंकि लालच तो बहुत अच्छा काम करता है, यदि हेतु अच्छा हो तो। प्रश्नकर्ता : यह लालच शुभ हेतु के लिए है, ऐसा माना जाएगा न? दादाश्री : शुभ हेतु नहीं, यह पूर्णकाम का लालच ! शुभ हेतु तो अभी दान देना या और कुछ सीखे तो उसमें शुभ हेतु है ही। उसके बाद वापस अशुभ हेतु आएगा। लेकिन जहाँ पर शुद्ध हेतु है या जहाँ पर पूर्णकाम होना है, फिर कोई काम बाकी नहीं रहे ऐसा पूर्णकाम स्वरूप हो, तो वह शुद्ध हेतु है! शास्त्र में नहीं, सुना नहीं..... प्रश्नकर्ता : अब ज्ञानी के अलावा ऐसे स्पष्टीकरण कौन दे सकता है? वर्ना, जगत् में से छूटना तो कितना जोखिमी है! दादाश्री : ऐसा भान ही नहीं है न! वास्तव में तो, मैं बंधा हुआ हूँ या नहीं, यदि ऐसा जान ले तब भी बहुत अच्छा लेकिन बंधा हुआ है
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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