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जिसे बचपन से अपमान, अपमान और सिर्फ अपमान ही मिला हो, उसे मान की ज़बरदस्त भूख रहती है। जिसे हर कहीं से मान, मान और सिर्फ मान ही मिला हो, उसकी मान की भूख मिट जाती है।
मानी को मान मिले तो उसकी लोभ की गाँठ छूटती जाती है। जबकि लोभी को चाहे कितना भी मान मिले, फिर भी लोभ की गाँठ नहीं छूटती।
मान हो तो भी उसे चलाया जा सकता है लेकिन 'कहाँ से मान मिलेगा, कहाँ से मान मिलेगा' रात-दिन ऐसा उपयोग रहने लगे तो वह भयंकर जोखमी है। मान का तो निकाल हो सकता है लेकिन मान की भूख का मुश्किल है।
लोग मान दें तो उसे आराम से चखना लेकिन उसकी आदत नहीं पड़ जानी चाहिए। और फिर जो मान देते हैं, उन पर राग न हो जाए इतना देखना चाहिए।
मान चखने से जागृति मंद हो जाती है और अगर मान में कपट घुस जाए तो घोर अंधेरा हो जाता है। मान चखने में हर्ज नहीं है लेकिन अगर मान की विकृति कैफ में परिणामित हो जाए तो उसमें हर्ज है। मान का अस्तित्व ही कुरूप बना देता है फिर वह आकर्षक नहीं हो सकता। सामनेवाले को हल्का माना, उसी से मान टिका हुआ है।
जितना मान का प्रेमी है क्या उतना ही अपमान का प्रेमी बन सकता है? खुद का कहीं भी अपमान न हो जाए, उसी की जागृति (लक्ष) रहे, उसे ऐसा कहा जाता है कि मान की भीख घर कर गई।
यह मान-अपमान किसे स्पर्श करते हैं? आत्मा को? नहीं। उसे अहंकार भोगता है। यदि 'आप' 'आत्मस्वरूप' हैं तो आपका कोई अपमान कर ही नहीं सकता। आत्मा को कोई मान-अपमान स्पर्श करता है क्या?
___ अक्रम विज्ञान में, 'जिसका' अपमान होता है वह 'खुद' नहीं है, ऐसा कहते ही 'खुद' उससे अलग हो जाता है।
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