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________________ २३४ आप्तवाणी-९ दादाश्री : सफल नहीं होने पर सबकुछ करता है। शंकाएँ करता है, कुशंकाएँ करता है सारी। सभी तरह के नाटक करता है वह फिर। या अल्लाह परवरदिगार हो जाता है फिर! फिर लालच भी हो जाता है लेकिन वही फिर उसकी फजीहत करता है, वह अलग। उसके कब्जे में गए तो फजीहत किए बगैर रहता नहीं है न! वाइफ के साथ मन-वचन-काया से कोई संबंध है ही नहीं और पतिपन (स्वामित्व) रखता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। पतिपन तो कब कहलाएगा? जब तक मन-वचन-काया से पाशवता वाला संबंध रहे, तभी तक पतिपन कहलाता है। प्रश्नकर्ता : लेकिन विषय हो, तभी पतिपन करता होगा न? दादाश्री : पतिपन यानी क्या कि डरा-धमकाकर भोग लेना लेकिन फिर अगले जन्म का हिसाब बंध जाता है न? प्रश्नकर्ता : उससे क्या होता है ? दादाश्री : बैर बंधता है! कोई आत्मा दबा हुआ रहता होगा एक घड़ी भर भी? बहुत टकराव हो जाए न, फिर कहेगा, 'क्या तूंबड़े जैसा मुँह लेकर घूम रही हो?' तब फिर तूंबड़ा और अधिक बड़ा हो जाता है। फिर वह रोष रखती है। पत्नी कहती है, 'मेरे हत्थे चढ़ेगा तब मैं उसका तेल निकाल लूँगी।' वह रोष रखे बगैर रहती नहीं न! जीवमात्र रोष रखता है, बस उसे छेड़ने की देर है! कोई किसी से दबा हुआ नहीं है। किसी का किसी से लेना-देना नहीं है। यह तो सब भ्रांति से ऐसा दिखाई देता है कि मेरा है, मेरा-तेरा! ये तो मजबूरन समाज में आबरू के लिए इस तरह पति से दबी हुई रहती हैं लेकिन फिर अगले जन्म में तेल निकाल देती है। अरे, साँपिन बनकर काटती भी है। और लालच में से लाचारी में एक स्त्री अपने पति से चार बार साष्टांग करवाती, तब जाकर एक
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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