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________________ [४] ममता : लालच २३१ कभी भी। यह एक ही जन्म का लालच नहीं है इंसान को, कितने ही जन्मों का लालच है लेकिन अगर अब इस एक जन्म में लालच को तोड़ डालेगा तो सीधा हो जाएगा। अतः लालच का गुण जब तक नहीं छूटता, तब तक जोखिम खत्म नहीं होता। अपना 'ज्ञान' क्या कहता है ? संसार में भोगने जैसा है क्या? तू बेकार ही इसके लिए भटक रहा है। भोगने योग्य तो आत्मा है! प्रश्नकर्ता : उसमें जो सुख समाया है, वैसा सुख और कहीं पर भी है ही नहीं? दादाश्री : और कहीं सुख होता होगा? वह तो सारा कल्पित सुख है। आप सुख की कल्पना करोगे तो सुख महसूस होगा। एक व्यक्ति कहता है, 'मुझे जलेबी बहत भाती है' और एक व्यक्ति कहता है, 'मुझे जलेबी देखकर ही घिन आती है।' यानी ये सभी कल्पित सुख हैं। पूरी दुनिया सोने को स्वीकार करती है और 'ज्ञानीपुरुष' उसे स्वीकार नहीं करते, या फिर जैन साधु भी सोने को स्वीकार नहीं करते। संसार के लोगों ने विषय में सुख की कल्पना की। विषय अर्थात् निरी गंदगी, उसमें कहीं सुख होता होगा? विषय का लालच, कैसी हीन दशा प्रश्नकर्ता : अब विषय में सुख लिया, उसी के परिणाम स्वरूप सभी झगड़े और क्लेश होते हैं न? दादाश्री : सबकुछ इस विषय में से ही उत्पन्न हुआ है और उसमें सुख कुछ भी नहीं है। सुबह से ही ऐसा मुँह रहता है जैसे एरंडी का तेल पी लिया हो। जैसे एरंडी का तेल नहीं पी लिया हो? प्रश्नकर्ता : यह तो कँपकँपी छूट जाती है कि इतने से सुख के लिए इतने सारे दुःख सहन करते हैं ये लोग!
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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