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आप्तवाणी-९
में आया न? इसमें गोंद की ज़रूरत नहीं पड़ती। बगैर गोंद के चिपक जाए, ऐसी टिकट है यह।
ममता के बिना भी सबकुछ प्राप्त यह तो ममता नामक भूत घुस गया है। उसे तो जब मैं निकाल दूंगा तब जाएगा। हम उसके ओझा हैं। ममता डायन है, उसके हम ओझा हैं इसलिए निकाल देते हैं। तू बगैर ममता के चल, तो कितना मान मिलेगा! लेकिन किसी ने भी ममता नहीं छोड़ी। मैं उसे पूछता हूँ कि 'तुझे क्या-क्या चाहिए? किस-किस चीज़ की भूख है?' तब वह कहता है, ‘मान की बहुत भूख है।' और किसकी भूख? तब वह कहता है, 'खाने-पीने में से थोड़ा सुख मिलता है,''अरे, तब ममता छोड़ न, तो सभी चीजें तुझे सामने से मिलेंगी।' तब वह कहता है, 'वह छोड़ दूँ तो मेरा चला जाएगा, जो है वह भी चला जाएगा।' इसलिए फिर ममता नहीं छोड़ता।
लालच के परिणाम स्वरूप फँसाव घड़े में हाथ डालते समय बंदर ऐसे करके ज़ोर से हाथ डालता है, लालच के मारे। 'अंदर से चने निकाल लँ' सोचता है। वह ज़ोर से हाथ डालता है और फिर चने से मुठ्ठी भर लेता है। अब ज़ोर से हाथ डाला तो ज़ोर से निकल भी सकता है, लेकिन मुठ्ठी बाँधी हुई है, उसका क्या होगा? वह फिर मुठ्ठी बाँधकर खींचता है न! फिर हाथ नहीं निकलता, इसलिए फिर चीखना-चिल्लाना, चीखना-चिल्लाना, चीखना-चिल्लाना! अब वह किसलिए नहीं छोड़ता? उसे ज्ञान है कि 'मैंने हाथ डाला है तो मैं निकाल सकता हूँ ऐसा है, तो वह निकल क्यों नहीं रहा? यानी कि किसी ने मुझे पकड़ा है अंदर से।' लेकिन वह छोड़ता ही नहीं, मुठ्ठी ही नहीं छोड़ता और बाहर चीख-चिल्लाहट, शोर-शराबा। छूटने के लिए प्रयत्न करता है, पूरी मटकी को उठाने जाता है, लेकिन उठा ही नहीं पाता न ! मटकी आसपास में मिट्टी लगाकर दबाई हुई होती है न! ज़ोर लगाकर उठाता ज़रूर है, लेकिन फिर मटकी और वह, दोनों साथ में पकड़े जाते हैं। फिर उस बंदर को लोग पकड़ लेते हैं। बंदर पकड़ में