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________________ १०६ आप्तवाणी-९ ये सभी पीड़ाएँ शंका में से उत्पन्न हुई हैं। आपको इस भाई पर शंका हो कि 'इस भाई ने ऐसा किया।' वह शंका ही आपको काट खाएगी। अब यदि कभी ऐसा किया भी हो और शंका हो जाए, तब भी हमें शंका से कहना है, 'हे शंका, तू चली जा अब। यह तो मेरा भाई है।' रकम जमा करवाने के बाद शंका? प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति ने मुझे गाली दी अब ऐसा तो मैं कैसे मान सकता हूँ कि उसने मुझे गाली नहीं दी? मेरा मन कैसे मानेगा? दादाश्री : ऐसा कह ही नहीं सकते न ! गाली दी है, वह तो दी ही है न! उसका सवाल नहीं है लेकिन हम क्या कहते हैं कि उस पर शंका नहीं होनी चाहिए। हमने गाड़ी में किसी को पचास हज़ार रुपये रखने को दिए और कहा कि, 'ज़रा मैं संडास जा रहा हूँ।' और फिर संडास में शंका हो तो? अरे, पाँच लाख रुपये दिए हों और शंका होने लगे न, तब भी शंका से कहना कि, 'अब तू चली जा। मैंने दे दिए, वे दे दिए। वे जाने होंगे तो जाएँगे और रहने होंगे तो रहेंगे!' सामने वाले पर शंका तो बिना बात के दोष बंधवाती है और यदि कभी मुझ जैसे को रुपये दिए हों और वह शंका करे तो उसकी क्या दशा होगी? यानी कि यह जगत् किसी भी जगह पर शंका करने योग्य है ही नहीं। उधार दिया हुआ याद आया और... रात को सोने जाए, ग्यारह बजे हों और ओढ़कर सो जाए और तुरंत विचार आए कि 'अरे वह लाख रुपये लिखवाना तो रह गया। वह लिखकर नहीं देगा तो क्या होगा?' तो हो चुका! हो चुका काम! भाई का! फिर मुरदा जी रहा हो न, उस तरह रहता है बाद में! अब किसी को लाख रुपये उधार दिए हों और वह हर महीने हज़ार रुपये ब्याज दे रहा हो, उसको अब दो-तीन लाख रुपयों का नुकसान हो गया, लेकिन उसने ब्याज तो भेजा, इसलिए हमने जाना कि
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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