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आप्तवाणी-९
और फिर वह हांडवा खाकर और थोड़ा दूध पीकर सो जाते हो या नहीं सो जाते? तो फिर अंदर जाँच नहीं की कि अंदर पाचक रस डले या पित्त डला या नहीं डला, वह सब? बाइल कितना डला, कितने पाचकरस डले, वह सब जाँच नहीं किया?
प्रश्नकर्ता : वह सब तो हो ही जाता है न! वह ऑटोमेटिकली होगा ही। उसके लिए जाँच करने की क्या ज़रूरत?
दादाश्री : तो क्या बाहर ऑटोमेटिक नहीं होता होगा? यह अंदर तो इतना बड़ा तंत्र अच्छी तरह से चलता है। बाहर तो कुछ करना ही नहीं है। अंदर तो खून, यूरिन, संडास सबकुछ अलग कर देता है, कितना सुंदर कर देता है ! फिर, छोटे बच्चे की माँ हो तो उस तरफ दूध भी भेज देता है। कितनी तैयारी है सारी! और आप तो चैन से गहरी नींद सो जाते हो! और अंदर तो सब अच्छा चलता रहता है। कौन चलाता है यह? अंदर का कौन चलाता है? और उस पर शंका नहीं होती?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : तो बाहर की भी शंका नहीं करनी चाहिए। अंत:करण में जो कुछ हो रहा है वही बाहर होता है, तो किसलिए हाय-हाय करता है? बीच में हाथ किसलिए डालते हो फिर? यह परेशानी क्यों मोल लेते हो? बिना बात की परेशानी!
शंका सर्वकाल जोखिमी ही ये बेटियाँ बाहर जाती हैं, पढ़ने जाती हैं, तब भी शंका। वाइफ पर भी शंका। इतना अधिक दगा! घर में भी दगा ही है न, आजकल! इस कलियुग में खुद के घर में ही दगा होता है। कलियुग अर्थात् दगेवाला काल। कपट और दगा, कपट और दगा, कपट और दगा! ऐसे में कौन से सुख के लिए करता है ? वह भी बगैर भान के, बेभान रूप से! बुद्धिशाली व्यक्ति में दगा और कपट नहीं होता है। निर्मल बुद्धि वाले में कपट और दगा नहीं होता। आजकल तो फूलिश इंसान में कपट और दगा होता है। कलियुग यानी सब फूलिश ही इकट्ठे हुए हैं न!