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________________ [२] उद्वेग : शंका : नोंध ७५ तो वह भी वहाँ सो जाता था और हम भी सो जाते थे। अब जंगल में वह बेचारा कहाँ जाए? उसे जहाँ जगह मिल जाए, वहीं पर उसका घर। उसका कोई ससुराल नहीं है न! हम तो दो-एक दिन ससुराल भी जा आते हैं! ___ इसलिए हमने 'व्यवस्थित' कहा है न, 'एक्ज़ेक्टनेस' है। उसमें नाम मात्र भी गलती नहीं है। प्रत्येक पर्याय में से गुज़रकर ये सब तो मेरी पृथक्करण की हुई चीजें हैं और ये सभी एक जन्म की चीजें नहीं हैं। एक जन्म में क्या इतने सारे पृथक्करण हो सकते हैं? अस्सी सालों में कितने पृथक्करण हो सकते हैं ?! यह तो कितने ही जन्मों का पृथक्करण है, वह सब आज हाज़िर हो रहा है। प्रश्नकर्ता : इतने सारे जन्मों का पृथक्करण, वह इकट्ठा होकर आज किस तरह हाज़िर होता है? दादाश्री : आवरण टूट गया इसलिए। अंदर ज्ञान तो है ही सारा। आवरण टूटना चाहिए न? ज्ञान की पूँजी तो है ही, लेकिन आवरण टूटने पर प्रकट होता है! सभी फेज़िज़ का ज्ञान मैंने ढूंढ निकाला है। हर एक फेज़ में से मैं गुज़र चुका हूँ और हर एक फेज़ का मैं एन्ड ला चुका हूँ। उसके बाद यह ज्ञान हुआ है। चंद्र के कितने फेज़? पूरे पंद्रह फेज़िज़। उन पंद्रह फेज़िज़ में तो अनंत काल से वह पूरे जगत् को नचा रहा है। फेज़िज़ पूरे पंद्रह, और उसमें तो वह पूरे जगत् को अनंतकाल से नचा रहा है। वही का वही चंद्रमा आज तीज का चंद्रमा कहलाता है, इतना ही है। जगत् के लोग उसे तीज कहते हैं लेकिन चंद्रमा वही का वही है। और फिर चंद्रमा क्या कहेगा? 'मैं तीज हूँ, मैं तीज हूँ।' तब जगत् के लोग बाहर निकलकर कहेंगे, 'क्या बक-बक कर रहा है? कल चौथ नहीं हो जाएगी? कल
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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